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जैनत्व जागरण.....
और प्राचीन संस्कृति को नष्ट कर स्व को प्रतिष्ठित करने की लोलुपता ने उन्हें हिंसा का मार्ग अपनाने को प्रेरित किया फलस्वरूप मन्दिर टूटे, जिन बिम्ब खण्डित हुए या उनका स्वरूप बदला गया एवं प्रतिस्थापित भी किया गया, जिसके जीवन्त प्रमाण आज भी बंगाल के सराक क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं, अनुभव किये जा सकते हैं। अपने प्राचीन सांस्कृतिक मूल्यों, मर्यादाओं और प्राचीन इतिहास को नष्ट करने में सक्षम और धार्मिक विद्वेष को अपनी स्वार्थपरता के लिये बनाये रखने के लिये जो कार्य ७वीं शताब्दी से प्रारम्भ हआ उनकी झलक वर्तमान में भी देखी जा सकती है। प्राचीन संस्कृति के निदर्शनों की आज भी अवहेलना की जा रही है। स्वतंत्र भारत के पुरातत्व विभाग और बंगाल के पुरातत्व विभाग की कोई रुचि नहीं है कि इन प्राचीनतम धरोहरों का संरक्षण करे क्योंकि इसके द्वारा सच्चाई के उस छोर तक पहुँच जायेंगे जो हमें आदि संस्कृति के द्वार पर ले जाने में सक्षम होगा । विश्व के सभी देश अपनी सांस्कृतिक सरक्षा के लिए एवं अपने प्राचीन इतिहास के संरक्षण लिये जितने तत्पर दिखायी देते हैं उतने ही लापरवाह हमारे देश की सरकार, हमारा समाज और हम हो गये हैं।
यह हमारे लिये बहुत ही शर्म की बात है कि सराक समाज का जो इतिहास हमारे पास है वह अंग्रेजी लेखकों की लेखनी से ही है और आज तक इस विषय में कोई भी व्यापक रूप से अनुसंधान नहीं किया गया। अतीत का गौरवमय इतिहास, भविष्य की उन्नति का प्रेरणा स्रोत होता है। हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि इस जाति के इतिहास की डोर छब्बीस सौ वर्ष पूर्व भगवान महावीर तथा उससे भी पहले भगवान पार्श्वनाथ से हमें मिलती है और गुप्तकाल तक तथा उसके बाद भी इस जाति का व्यापक प्रभाव देखने को मिलता है। कुछ विद्वानों का यह मानना है कि बंगाल के आदिवासी अंचल में सिन्धु घाटी से जो लोग सभ्यता की मशाल लेकर आये थे वे सराक ही थे । इनके विषय में श्री हरि प्रसाद और नरसिंह प्रसाद तिवारी ने लिखा है कि - "हम आश्चर्य से पुलकित हो उठते हैं जब देखते हैं कि हजारों वर्षों के घात-प्रतिघातों को, उत्थान-पतन को तथा सामाजिक परिवर्तनों को झेलते हुए भी ये सराक जाति अपने अस्तित्व की