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जैनत्व जागरण....
जगतनाथ दास की भागवत कथा में ऋषभनाथ का वर्णन है। ऋषभदेव ने अपने सौ पुत्रों को जो उपदेश दिया था उसका भागवत में उल्लेख श्रावक संस्कृति का प्रभाव परिलक्षित करता है ।
यद्यपि हम देखते हैं कि भगवान ऋषभदेव के पश्चात तेईस तीर्थंकरों का अविर्भाव हुआ । सबके संघ बने और जिनमें उनका अनुशासन चलता था । किन्तु सराक जाति भगवान ऋषभदेव द्वारा प्रचलित अनुशासन को आज भी पालन कर रही है । ऋषभदेव ने मानव जाति को कृषि, शिल्प आदि अनेक विषयों का ज्ञान दिया । अग्नि का प्रयोग करना सिखाया । लिपि का सृजन किया । दूसरे शब्दों में कहा जाए तो मानव संस्कृति के विकास के अग्र पुरोधा ऋषभदेव ही थे । जिन लोगों को उन्होंने शिल्प कर्म का ज्ञान दिया था वहीं श्रावक लोग परवर्ती काल में सराक जाति के नाम से परिचित हुए ऐसा माना जाता है । श्रावक से सराक :
श्रावक शब्द का अपभ्रंश रूप है सराक । भारत के पूर्वांचल की साधारण जनता में 'व' का उच्चारण नहीं होता है अतः श्रावक की जगह पर 'व' का उच्चारण नहीं करने पर श्राक हो गया जो धीरे-धीरे सराक बन गया है । श्रावक का संस्कृत अर्थ है श्रमणकारी । पाश्चात्य पण्डितों ने ही सर्वप्रथम इस अर्थ को प्रचलित किया । "The word Sarak is doultless derived from Sravaka, The Sanskrit word 'heare.' Amongest the Jain, the term is used to indicate they laymen or persons Who engaged in secular persuits, as distinguished from the Yatis, monks or ascetice.”
गेटे ने अपनी Census Report में लिखा है- “यह सराक शब्द निस्सन्देह श्रावक शब्द से उद्भुत हुआ है जिसका संस्कृत अर्थ है श्रवणकारी। जैनों के मध्य उन गृहस्थों के लिए प्रयुक्त हुआ है जो कि लौकिक व्यवसाय करते हैं एवं यति और साधुओं से भिन्न हैं ।"
Mr. L.S.S.O. Maly I.C.S. के अनुसार “The name