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जैनत्व जागरण.....
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डलटन के ग्रन्थ में इसका उल्लेख है । अग्रवाल व ओसवाल इन दोनो उपाधि के द्वारा यह प्रस्फुट हुआ है । The Whole of The Jains are divided into yati's and Saravaka Clericaland lay and as There Goches or family division in clude Aguawal and oswal's (E.T.I. Dalton... J.A.S. of Bengal Vol-35 Part - I (cal. 1866)
मुकुन्दराम चक्रवर्ती ने अपने चण्डिमंगल काव्य में लिखा है । “सराक वसे, गुजराते, जीवजन्तु नही कांटे"
अधिक सराक (श्रावक) गुजरातमें रहते है, जो जीवजन्तु की हिंसा नही करते है, वे संपूर्ण निरामिष है । इस कथन से स्पष्ट समझा जा सकता है कि सराकों का वंशविस्तार गुजरात में भी हुआ था ।
बंगाल प्रान्त में जहाँ प्रायः सभी मत पंथ के लोग मांसाहार करते है वहां एक मात्र सराक जाति ही मांसाहार नही करती है। वही वस्तुतः जैन की जाति है। सराक जातिने आज भी अपने अहिंसा प्रधान धर्म को अव्याहत रखा है। दीर्घकालके बाद भी वे अपनी विशिष्टता अक्षुण्ण रख पाये है, यानि कि वे आज भी मांसाहार नहीं करते है ।
“On The ancient copper Mines of Singbhoom” 1457 ग्रन्थ में ई.टी. डलटन साहेब ने लिखा है। - सराक जाति के लोग स्मरणातीत काल से ताम्र शिल्प में नियुक्त थे। सिंहभूम एवं धलभूम इलाकों में सराको के प्रभाव से एक समृद्ध ताम्र युग का आविष्कार हुआ था । पश्चात् "हो" जातिके लोगों के साथ सराकोंका शिल्प संबन्धी विवाद हुआ था ।
एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल प्रेसिडिंग से भी जाना जाता है कि, सराक लोगो ने ही ताम्र खानों का आविष्कार किया था, कालान्तर में "हो" सम्प्रदाय के लोग इनको (सराकों को) उस क्षेत्र से विताडित करके उनके चिन्ह को सम्पूर्णतः विलुप्त न कर पाये थे मकान आदि में सराकों का अस्तित्व रह गया था ।
सराकगण सिर्फ ताम्र युग के ही प्रवर्तक नही थे बल्कि लौह युग