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जैनत्व जागरण....
क - क्रिया
अर्थात् - श्रद्धा पूर्वक विवेकवान् बनकर जो क्रिया (कर्म) करते है, वे श्रावक है।
धर्मश्रवण करके जो अपने गुणधर्मको टिकाये रखता है। शृणोति इति श्रावकः जो सुनता है वह श्रावक है ।
जैन दर्शन में कान (कर्ण) को / श्रवणेन्द्रियको (शब्द ग्राह्य इन्द्रयको) सर्वापेक्षा महत्वपूर्ण प्रगटेन्द्रिय माना है ।
मानव समाज में जो जितना ज्यादा श्रवणेन्द्रिय को प्रगट कर पाता है वह उतना महत् तत्व का अधिकारी बनता है। श्रवणेन्द्रिय को शास्त्रानुसार उर्ध्वमुखी करने में जो समर्थ होते है, वह श्रवण के अधिकारी बनते है। वही जिनेन्द्र या तीर्थकर के उपासक यानि श्रमणोपासक बन सके है ।
The name Sauvak, Serak, of Saraks Clearly a Corruption of Sravak the Sanskrit waud for a 'Hearer' Which was used by The Jains for lay brethern, i.e. Jains engaged in secular pursuits as distinguished from yati, i.e. Priests or ascetics (O'malley, L.S.S.Bangal District gazetteers, Vol-xx, Singbhum Etc-cal-1919, P.P.-25-26)
उल्लेखनीय है कि ओमेली की किताब मे भी इस बात का स्पष्टीकरण है । वेभारिज हेनरी अनुदित आबुल फसल के अकबर नामा की पाद टीका में इस विषय का उल्लेख है ।
In Hindustan the Jain are usually called Syauras but distinguished themselves into Sraavakas and yatis, the Name does not seen to be in use now, I do not know its origin unless it be a corruption of cretambar.
तथ्य (Beveridge, Henry- “Akbarnama" (Eng. TR. of Abul Fazle) Vol-I P.-147 (F.N.-2) see also cole brooke Ref. IX. P-291
समग्र जैन सम्प्रदाय दो भाग में बटे हुए थे, याजक एवं प्रयाजक