________________
१६०
जैनत्व जागरण.....
में प्रधानता प्राप्त की ? दुःख का विषय है कि बंगाल देश का गुप्तयुग से पहले का इतिहास बड़े ही अन्धकार में है। इस समय जो कुछ भी इतिहास तैयार करने की सामग्री हमारे सामने मौजूद है यदि इधर उधर से संग्रह करके उस समय के इतिहास की रचना की जाए तो भी धर्म सम्बन्धी इतिहास की सामग्री का तो हमारे पास अभाव सा ही है। इस लिये गुप्तकाल के पर्ववर्ती कई शताब्दियों का धर्म विषयक इतिहास रचने का प्रयास करना कठिन अवश्य है । तथापि उस समय पूर्वोक्त धर्म संप्रदाय अविराम प्रचार पा रहे थे इस विषय में किंचितमात्र भी संदेह नहीं है।
वैष्णव धर्म का प्राचीन नाम भागवत धर्म था । इस धर्म की उत्पत्ति प्राचीन काल में हुई थी। ईसा से पूर्व चौथी शताब्दी में ग्रीक दूत मेगास्थनीज ने मथुरा के प्रदेश में इसी धर्म का विशेष प्रभाव पाया था । ईसा के पूर्व दूसरी शताब्दी में तक्षशिला के ग्रीक राजा (Antialcidas) पंचम शुकराज ने भागभद्र की विदिशा स्थित राज सभा में हेल्युडोरास नामक दूत को भेजा था । इसी यवन (अर्थात् ग्रीक) दूत ने भागवत धर्म ग्रहण किया था ।
इस परम भागवत यवन हेल्युडोरास के प्रसंग से उत्तरवर्ती काल में परम वैष्णव यवन हरिदास की कथा भी स्वतः स्मरण हो जाती है। हम पहले लिख चुके हैं कि मगध के गुप्तसम्राट सभी भागवत धर्मानुयायी थे। ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी से ईसा की चतुर्थ शताब्दी तक पुष्करणाधिपति चद्रवर्मन चक्रस्वामी का उपासक था । बंगाल में भागवत अथवा वैष्णव धर्म का यही प्रथम प्रमाण है।
हम पहले कह आये हैं कि ईसा की पांचवीं शताब्दी में उत्तरबंगाल में कोकामुख देवता के लिये एक मंदिर निर्माण किया गया था। यह कोकामुख संभवतः शिव का एक रूप ही था यदि ऐसा ही हो तो इसी को बंगाल में शिवधर्म का प्रथम ऐतिहासिक प्रमाण समझ कर ग्रहण करना चाहिए। इस से उत्तर काल में कर्णसुवर्ण से राजा शशांक एवं कर्णसुवर्ण विजेता भास्करवर्मन ये दोनों शैव थे । वर्तमान में यह कहना कठिन है कि बंगालदेश में शैवधर्म ने अपना प्रभाव कैसे फैलाया था । यह धर्म भारतवर्ष का एक