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जैनत्व जागरण.......
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अर्थात् - तीर्थंकर प्रभु जब दीक्षा ग्रहण करते हैं जब शक्रेन्द्र उनको देवदूष्य वस्त्र देता है । " वह देवदूष्य वस्त्र प्रथम और अंतिम जिनेश्वर का गिर जाने से वे सर्वदा नग्न रहे । तथा "चौबीस तीर्थंकरों को इन्द्र द्वारा दिया हुआ देवदूष्य वस्त्र गिर जाने से वस्त्र के अभाव से नग्न रहे ।"
इन उपर्युक्त प्रमाणों से भी यह स्पष्ट है कि श्वेतांबरों को तीर्थंकर की नग्न अवस्था की मूर्ति भी वैसे ही मान्य है जैसे कि अनग्न इसी लिये वे तीर्थंकर की अनग्न तथा नग्न दोनों प्रकार की मूर्तियां की प्रतिष्ठा कराकर उन की पूजा अर्चा करते हैं.
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एवं इन “सभानाथ” की मूर्ति के इर्द-गिर्द जो गोलाकार प्रभामंडल, विद्याधरों, द्वारा फूलमालाए तथा पुष्प, साजबाज तथा चार जुड़े हाथों के बीच में तीन छत्र इत्यादि चिह्न अंकित है वे तीर्थंकर के आठ प्रातिहार्यों चिह्न हैं । तीर्थंकर को ये प्रातिहार्य केवलज्ञान होने के बाद होते हैं । उनके नाम ये हैं :
"अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यध्वनिश्चामरमासनं च ।
भामंडलं दुन्दुभिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥१॥ अर्थ :तीर्थंकरो के १. अशोकवृक्ष, २. देवताओं द्वारा पुष्पवृष्टि ३. दिव्य ध्वनि ४. चामर ५. सिंहासन ६. भामंडल ७. दुन्दुभि ८. छत्र ये आठ 'वस्तुएं (तीर्थंकर के साथ प्रतिहारी के समान होने से ) प्रातिहार्य हैं ।
अत: इस उपर्युक्त मूर्ति में जो १. गोलाकार प्रभामंडल (भामंडल), २. विद्याधरों द्वारा पुष्पमालायें तथा पुष्प (पुष्पवृष्टि), ३. साज बाज (दुन्दुभि) ४. चार जुड़े हुए हाथों के बीच में छत्र ५. दो इन्द्र चामर लेकर खड़े हैं (चार), ६. बैठने का स्थान (सिंहासन) इत्यादि चिह्न अंकित हैं ।
जैन मूर्तियों के विषय में कुछ आलोचना करेंगे ।
बंगालदेशके दीनाजपुर जिलांतर्गत सुरोहोर से प्राप्त 'सभानाथ' की जिस चित्तरंजक नग्न मूर्ति का वर्णन हम पहले कर आये हैं वह मूर्ति भी श्वेताम्बर जैनों की मान्यता के अनुकूल है । किन्तु दिगम्बरों की मान्यता
प्रतिकूल है। क्योंकि दिगम्बरों को तीर्थंकर के सिर पर बाल होना सर्वथा