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जैनत्व जागरण.....
और चम्पा में) बौद्ध संघाराम अधिकांश ध्वंस दशा प्राप्त कर चुके थे । घुसांग के पूर्ववर्ती चीनी यात्री फाहियान ने ताम्रलिप्ति नगरी में दो वर्ष तक (ई.स. ४०९ से ४११) वास किया था । उस ने लिखा है कि उस समय ताम्रलिप्ति नगर में बौद्ध धर्म का यथेष्ट प्रभाव था । एवं उस नगरी में बौद्ध संघाराम बाईस की संख्या मे थे। परन्तु ह्यूसांग के समय में मात्र दस संघारामों की ही संख्या थी । अतएव यह बात स्पष्ट है कि दो सौ तीस वर्षों (ई.स. ४०६ से ६३६) के अंदर ताम्रलिप्ति में बौद्ध धर्म की बहुत कुछ अवनति हो चुकी थी । डूंसाग के विवरण से एक बात और ध्यान देने योग्य है कि ईसा की सातवीं शताब्दी में कामरूप, कंगोद तथा कलिंग इन तीन प्रदेशों में बौद्धधर्म का विशेष प्रचार न हो पाया था । पूर्व-भारतवर्ष में ब्राह्मणधर्म, बौद्धधर्म तथा जैनधर्म में परस्पर बहुत शताब्दियों तक प्रबल प्रतियोगिता (संघर्ष) चलती रही थी। इसी कारणवश उक्त तीनों प्रदेशों में बौद्धधर्म प्रधान स्थान प्राप्त नहीं कर सका था । एवं इस प्रतियोगिता के फलस्वरूप ताम्रलिप्ति में फाहियान के समय से लेकर गुंसांग के समय तक प्रायः अढ़ाई सौ वर्षों के अन्दर बौद्ध संप्रदाय इतना दुर्बल हो गया था ।
गुंसांग के विवरण से जाना जाता है कि ईसा की सातवीं शताब्दी में पूर्व-भारतवर्ष में जैनधर्म यथेष्ठ प्रबल था । उक्त चीनी यात्री बौद्ध था, इस लिये उस ने बौद्धधर्म का ही विस्तृत विवरण दिया है। जैन व ब्राह्मणधर्म सम्बन्धी संक्षिप्त विवरण दे कर ही कार्य निपटाया है तथापि देखा जाता है कि वैशाली, पौंड्रवर्धन, समतट एवं कलिंग इन चार प्रदेशों में जैन संप्रदाय की संख्या ही सब से अधिक थी । मगध में भी बहुत जैन थे इस के अतिरिक्त (बंगाल) अन्यान्य प्रदेशों में यथेष्ट संख्या में जैन नहीं थे ऐसा मानना यथार्थ मालूम नहीं होता* | इन सब प्रदेशों में (उपरोक्त चार प्रदेशों की अपेक्षा) जैनों की संख्या कम होने के कारण ह्यूसांग मौन रहा हो ऐसा ज्ञात होता है।
ब्राह्मणधर्म संप्रदायों के सम्बन्ध में भी वह मौन सा ही है, क्योंकि किस प्रदेश में कितने देवमन्दिर थे इतना ही केवल उल्लेख किया है । किस संप्रदाय की कितनी जनसंख्या एवं किस संप्रदाय के कितने मंदिर