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जैनत्व जागरण.......
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थे, इस विषय में वह सर्वथा मौन है । तथापि उस समय बंगालदेश में ब्राह्मणधर्म के कौन कौन से संप्रदाय विद्यमान थे, इस विषय की थोड़ी बहुत सामग्री तो अवश्य ही हमारे पास है । इस लेख में इस विषय पर विस्तृत आलोचना करने को हमारे पास स्थान नहीं है । तथापि संक्षेप से दो चार प्रमाण देकर ही बस करेंगे। हम जानते हैं कि कर्णसुवर्ण का अधिपति शशांक शैव धर्मानुयायी था, तथा उस का परमशत्रु एवं कर्णसुवर्ण विजेता कामरूप राजा भास्कर वर्मन भी शिवोपासक था । किन्तु कर्णसुवर्णपति जयनाग परम भागवत अर्थात् वैष्णव था (E.P. Ind. XVII. P. 63) बंगाल में जिन गुप्तसम्राटों ने राज्य किया है वे वैष्णव थे । उन के शासनकाल में ब्राह्मण धर्म का बंगाल में खूब प्रचार हुआ था । इस बात की सत्यता का यथेष्ट प्रमाण उस समय के ताम्रपत्र आदि ऐतिहासिक सामग्री है । उन लोगों के शासन काल में बंगालदेश में बहुत देवमन्दिर प्रतिष्ठित हुए थे । इस बात की पुष्टि के लिये अनेक प्रमाण उपलब्ध है । दामोदर पुर से प्राप्त ताम्रपत्रों (चौथे और पांचवें) से जाना जाता है कि सम्राट बुद्धगुप्त (ई. स. ४७७, से ४९६) एवं तृतीय कुमारगुप्त (ई. सं. ५४३) के राज्यकाल में पौंड्रवर्धन- भक्ति में कोकामुख स्वामी के लिये एक तथा श्वेतवराह स्वामी के लिये दो मन्दिर निर्माण किए गये थे । शुशुनिया पर्वत लिपि (E.P. Ind. XIII) है । इससे बंगाल, बिहार, उड़ीसा से पाये जाने वाले जैन स्मारक तथा मूर्तियाँ ईस्वी पूर्व तीसरी शताब्दी मौर्य काल से लेकर कुषाण काल, गुप्त काल इत्यादि को व्यतीत करते हुए ईसा की तेरहवीं शताब्दी तक की है । जिस में जैन तीर्थकरों की मूर्तियाँ नग्न और अनग्न दोनों तरह की हैं।
तथा ऐसा भी ज्ञात होता है कि कलिंगदेशाधिपति चक्रवर्ती खारवेल द्वारा निर्मित हाथीगुफा आदि जैन गुफाएं भी इन्हीं 'निग्रंथों' के उपदेश से ही तैयार कराई गयी होंगी। क्योंकि खारवेल के हाथीगुफा के शिलालेख से ज्ञात होता है किउसने जैन मुनियों को वस्त्रदान भी दिये थे। जिन मुनियों को चक्रवर्ती खारवेल ने वस्त्र दान दिये थे, वे जैन श्वेताम्बरमुनि इन उपयुक्त चारों शाखाओं में से होने चाहिये । खारवेल का समय ईसा पूर्व पहली