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जैनत्व जागरण.....
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कल्याणक रूप आठ प्रतिहार्यों के चिह्न अंकित होते हैं । ५. निर्वाण कल्याणक रूप तीर्थंकर की ध्यानस्था शैलेशीकरणमय मुद्रा होती है । किसी किसी तीर्थंकर प्रतिमा में प्रभु के सिर पर मुकुट कुंडल, अलंकारों के चिह्न भी होते हैं वे सब जन्म कल्याणक के समय इन्द्र द्वारा तीर्थंकर प्रभु को पहनाये हुए अलंकारों अथवा जब प्रभु दीक्षा लेने के लिये शिविका में बिराजमान होते हैं उस समय सुसज्जित अलंकारों के चिह्न अंकित होते है, ऐसी प्राचीन मूर्तियाँ भी अनेक स्थानों से मिली हैं ।
तीर्थंकरों की जीवतस्वामी की मूर्तियाँ भी श्वेताबरों ने पूजा अर्चना के लिये स्थापित की हैं। ऐसी प्राचीन कालीन प्रतिमायें भी पुरातत्व विभाग को मिली हैं। यहां पर एक ऐसी प्राचीन प्रतिमा का परिचय देना उपयुक्त है ।
श्वेताम्बर जैनों के मान्य आवश्यक चूर्णि तथा निशीथ चूर्णि एवं वसुदेव हिंडी नामक शास्त्रों में जीवतस्वामी की मूर्ति निर्माण तथा उस की पूजा अर्चा का वर्णन भी पाया जाता है । इस का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है :
विद्युन्माली देव ने सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए महाहिमवान् नामक पर्वत से अत्युत्तम जाति का चन्दन लाकर, उस चन्दन की गृहस्थावस्था में कायोत्सर्ग ध्यान में स्थित भाव साधु की भगवान् महावीर अशोक ने निर्माण करवाया था । एवं इसी स्थान पर बुद्ध देव ने सात दिन धर्म प्रचार किया
था ।
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९. ताम्रलिप्ति – (मेदिनपुर अंतर्गत आधुनिक तमलूक ) समतट से पश्चिम दिशा में यात्रा का ह्यूसांग ताम्रलिप्ति में आया । यहां पर दस बौद्ध संघाराम थे तथा उनमें प्राय: एक हजार बौद्ध भिक्षु वास करते थे । देवमंदिर पचास से अधिक थे । ताम्रलिप्ति नगरी के समीप एक स्तूप था । तथा ह्यूसांग के मतानुसार इसे भी सम्राट अशोक ने बनवाया था ।
१०. कर्ण सुवर्ण- (मुर्शिदाबाद जिला ) समतट से उत्तर दिशा की यात्रा कर वह कर्ण सुवर्णमें आया । यहां पर दस बौद्ध संघाराम थे और उनमें दो हजार से अधिक बौद्ध भिक्षु निवास करते थे । ये सभी हीनयान संप्रदाय