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जैनत्व जागरण.......
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प्राचीन मूर्तियां सरकारी पुरातत्व अन्वेषकों को खुदाई करते हुए प्राप्त हुई हैं । जो कि पद्मासन और खड़ी कार्योत्सर्ग अवस्था (दोनों अवस्थाओं) में ध्यानस्थ हैं। उन के शरीर पर मुकुट, कुंडल, मालाएं, कंकन इत्यादि अलंकार खुदे हुए हैं । तथा अनेक स्थानों में ऐसी मूर्तियां इधर उधर पड़ी हुई भी मिलती है। ई. सन १९३० में एक ऐसी ही जीवतस्वामी की प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की पद्मासनासीन पाषाण प्रतिमा को अजमेर नगर के इन्द्रकोट में मुसलमानों की ‘“ढाई दिन का झोपड़ा' नामक मस्जिद में एक वृक्ष के नीचे रखा देखा गया था । ई. सन् १९३४ - ३५ में बिहार के राजग्रह नगर के एक पर्वत पर भी ऐसी ही मूर्ति देखी गई थी । जो कि सरकार पुरातत्व विभाग ने एक प्राचीन जैनमन्दिर के ध्वंसावशेष को खुदवाने से अनेक अन्य जैनमूर्तियां के साथ प्राप्त की थी। यहां भी अनेक बौद्ध संघाराम थे किन्तु अधिकांश ध्वंस दशा प्राप्त कर चुके थे । तथा इन में रहने वाले भिक्षु सभी हीनयान पंथी थे । संख्या भी दो सौ से कुछ अधिक थी । देवमन्दिर प्रायः बीस थे । जैनों के सम्बन्ध में इस ने कुछ नहीं लिखा । किन्तु उस समय चम्पा में जैन धर्मावलम्बी नहीं थे : ऐसा मानना ठीक नहीं है। क्योंकि ह्यूसांग बौद्ध था, इस लिये उस ने बौद्धधर्म का ही विशेषतया वर्णन कर अन्य संप्रदायो के सम्बन्ध में संक्षिप्त उल्लेख मात्र किया है । ऐसी अवस्था में उस की मौनता से ऐसा निश्चित करना उचित नहीं है । यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि आधुनिक काल में भी भागलपुर शहर में एक प्रसिद्ध जैन* मन्दिर है ।
५. कजंगल - (आधुनिक राजमहल) घुंसांग चम्पा से कजंगल में आया। यहां पर उसने छः सात संघाराम तथा तीन सौ से अधिक (बौद्ध) भिक्षु एवं दस देवमंदिर देखे थे । जैन संप्रदाय सम्बन्धी उसने कुछ भी उल्लेख नहीं किया ।
६. पौंड्रवर्धन- (उत्तर बंगाल) ह्युंसांग कजंगल से पौंड्रवर्धन में आया । यहां पर इसने बीस संघाराम तथा तीन हजार से अधिक बौद्ध भिक्षु देखे । इनमें से अधिकतर हीनयान पंथी थे । शेष महायान पंथी थे । प्रायः एक सौ देवमंदिर थे एवं ब्राह्मण धर्मावलंबी भिन्न भिन्न संप्रदायों में विभक्त थे 1