________________
जैनत्व जागरण......
चन्द्रगुप्त के वंश में बिन्दुसार, अशोक श्री, कुणाल और उसका पुत्र त्रिखंड भर्ताधिप परमार्हत्, अनार्य देशों में भी श्रमण विहार प्रवर्तन करने वाला महाराज सम्प्रति हुआ ।"
" तद्वंशे तु बिन्दुसारोऽशोकश्रीकुणालसूनुस्त्रिखण्ड भरताधिपः परमार्हतो अनार्यदेशेष्वपि प्रवर्तित श्रमणविहारः सम्प्रतिमहाराजश्चाभवत् ।" - विविधतीर्थकल्पे पाटलीपुत्रनगरकल्पः पृ. ६९ ।
सम्राट सम्प्रति ने आचार्य सुहस्ति सूरि जी से जैन धर्म स्वीकार किया और जैन धर्म का देश और विदेश में प्रचार किया । कई इतिहासविदों का यह मानना है कि जिन शिलालेखों पर 'देवानाम् प्रियदर्शिन' लिखा है वे सब सम्प्रति के शिलालेख है और जिन पर सिर्फ देवानाम् प्रिय या देवानाम् प्रिय अशोकस्स लिखा है वे अशोक के है क्योंकि इन शिलालेखों में जैन तत्त्व दर्शन तथा जैन पारिभाषित शब्दों का प्रयोग इतना अधिक है कि इन्हें बौद्ध नहीं माना जा सकता है । सम्प्रति के शिलालेखों में स्थावर जीवों का वर्णन, समाचरण और संयम, अष्टमी, चतुर्दशी और पर्युषण पर्व की पुण्य तिथियों में पक्षियों के वध शिकार का निषेध, संयम, भावशुद्धि, आश्रव का उल्लेख तथा स्वधर्मी (साधर्मिक) वात्सल्य का प्रयोग जो आज भी जैन परम्परा में दिखाई देता है, स्तम्भ के ऊपर सिंह की मूर्तियां एवं चक्र ये सब इस बात की पुष्टि करते हैं कि जिन्हें हम अशोक के शिलालेख मानते हैं उनमें से अधिकांश सम्प्रति के है | An epitome of Jainism में सम्प्रति के लिये लिखा है कि Samprati was a great Jain monarch and a staunch supporter of the faith. He erected thousands of temples throughout the length and breadth of his vast empire and consecreted large number of images. He is stated further to have sent Jain missionaries and ascetics abroad to preach Jainism in the distant countries and spread the faith amongst the people there.
१४०
-An Epitome of Jainism Appendix. A. p.v. सम्प्रति के बनाये हुए मंदिरों के अवशेष गिरनार में तथा कुम्भलगढ़