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जैनत्व जागरण.....
पराग' से दिया, वस्तुतः मुनि कल्याणविजयजी का यह उल्लेख भी श्वेताम्बर पक्ष की पुष्टि के संदर्भ में ही हैं । उनका यह कहना कि वस्त्र भी इतनी सूक्ष्म रेखाओं से दिखाया जाता था कि ध्यान से देखने से ही उसका पता लगता था, यह बात केवल अपने सम्प्रदाय की मान्यता को पुष्ट करने के लिये कही गई है। प्राचीन मूर्तियों में ही नहीं, वर्तमान श्वेताम्बर मूर्तियों में भी सूक्ष्म रेखा द्वारा उत्तरीय को दिखाने की कोई परम्परा नहीं है, मात्र कटिवस्त्र दिखाते हैं । यदि यह परम्परा होती तो वर्तमान में भी श्वेताम्बर मूतियों में वामस्कंध से वस्त्र को दिखाने की व्यवस्था प्रचलित रहती। वस्तुतः प्रतिमा पर वामस्कन्ध से वस्त्र दिखाने की परम्परा बौद्धों की रही है और ध्यानस्थ बुद्ध और जिन प्रतिमा में अन्तर इसी आधार पर देखा जाता हैं। अतः जिन प्रतिमा के स्वरूप के संबंध में मुनि कल्याणविजयजी का कथन भी प्रमाण रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता ।
इसी प्रकार प्रो. रतनचंद्रजी ने 'प्रवचनपरीक्षा' का एक उद्धरण भी दिया है। उनका यह कथन कि जिनेन्द्र भगवान का गुह्यय प्रदेश शुभ प्रभामण्डल के द्वारा वस्त्र के समान ही आच्छादित रहता है और चर्मचक्षुओं के द्वारा दिखाई नहीं देता । वस्तुतः तीर्थकरों के संबंध में यह कल्पना अतिशय के रूप में ही की जाती हैं । लेकिन चाहे श्वेताम्बर परम्परा हो या दिगम्बर परम्परा, अतिशयों की यह कल्पना तीर्थंकर के संबंध में सत्य हो, मूर्ति के संबंध में सत्य नहीं । वैज्ञानिक सत्य यह है कि यदि मूर्ति नग्न है तो वह नग्न ही दिखाई देगी। किन्तु ‘प्रवचनपरीक्षा' में उपाध्याय धर्मसागरजी का यह कथन कि गिरनार पर्वत के स्वामित्व को लेकर जो विवाद उठा उसके पूर्व पद्मासन की जिनप्रतिमाओं में न तो नग्नत्व का प्रदर्शन होता था और न वस्त्र चिन्ह बनाया जाता था, समीचीन लगता हैं । अतः प्राचीन काल की श्वेताम्बर और दिगम्बर पद्मासन की प्रतिमाओं में भेद नहीं होता था। उनका यह कथन इस सत्य को तो प्रमाणित करता है कि पूर्व काल में जिन प्रतिमाओं में श्वेताम्बर और दिगम्बर का भेद नहीं होता था किन्तु हमें यह भी समझना होगा कि भेद तो तभी हो सकता था, जब दोनों सम्प्रदाय पूर्वकाल में अस्तित्व में होते।
मथुरा की मूर्तियों तथा एक हल्सी के अभिलेख से यह स्पष्ट रूप से सिद्ध होता है कि संघभेद के पश्चात् भी कुछ काल तक मंदिर व मूर्तियाँ अलग-अलग नहीं होते थे । अभी तक उपलब्ध जो भी साक्ष्य है उनसे यही सिद्ध होता है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर प्रतिमाओं में स्वरूप भेद लगभग छठी शताब्दी से