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जैनत्व जागरण....
के मामा थे। अतः महावीर का इस जाति से रक्त संबंध था । दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ के समय समर राजा के अख्यान से यह स्पष्ट होता है कि कैलाश में उस समय नाग जाति के लोग वास करते थे। वहाँ पर जल भर जाने के फलस्वरूप इस जाति को अपना पैतृक निवास छोड़कर नीचे उतरना पड़ा और धीरे धीरे ईरान, ईराक से लेकर अन्य भू-भाग में फैल गये । २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का प्रभाव ईरान तक था। जिसके कारण उस समय ईरान पारस के नाम से विख्यात था जो कालक्रम में पारस से फारस हो गया । तीर्थंकर जहाँ-जहाँ होते और विचरण करते हैं वह क्षेत्र समृद्धशाली हो जाते हैं । बाद में जब दूसरे तीर्थंकर का प्रादुर्भाव अन्य क्षेत्र में होता है तो जहाँ पहले समृद्धि थी वहाँ से लोग पलायन करके नये तीर्थंकरों के समृद्धिशाली क्षेत्रों में आकर बसने लगते हैं। यह एक क्रम है जो चलता रहता है और इतिहास को दिशा देता है ।
कैलाश यात्रा के दौरान कुछ तिब्बती किताबें व साहित्य मिला जिसके अनुवाद से कुछ महत्वपूर्ण तथ्य सामने आये हैं । Gangkare Teashi (White Kailas) नामक किताब में स्पष्ट लिखा है कि बौद्ध धर्म से पूर्व जैन इस क्षेत्र में रहते थे। उनके प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे और अन्तिम तीर्थंकर महावीर । इसी किताब में ऋषभदेव के पुत्र भरत और बाहुबली का उल्लेख आता है और सबसे महत्त्वपूर्ण वर्णन २०वें तीर्थंकर मुनि सुव्रत स्वामी का कैलाश में आकर अपने हजारों शिष्यों के साथ तपस्या करने का मिलता है । यह एक बहुत महत्वपूर्ण विवरण हैं जो हमारे तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता को भी पुष्ट करता है ।
इसी किताब में लिखा है कि ऋषभदेव ने कैलाश के पास एक गुफा में तपस्या की थी। अष्टापद खोज यात्रा के तीसरे चरण में कैलास के बेस पर एक गुफा तक दल के लोग पहुंचे जिसके १३ ड्रिगुंग कहा जाता है क्योंकि यहाँ तेरह छोटे स्तूप बने हुए हैं। इन स्तूपों पर तीर्थंकर मूर्ति तथा लेख है जो अभी पढ़े नहीं गये है। मैक्सिकों के प्राचीन स्तूपों, मिस्त्र के पिरामिडो और सारनाथ के स्तूपों की कुछ सामान्य विशेषताएं है । प्रथम यह स्तूप किसी महान व्यक्ति की याद में बनाये जाते थे एवं उनकी चिता