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जैनत्व जागरण.......
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और विरोध के कारण उन जैन राजाओं को जैन मंदिरों के अन्दर शैव मूर्तियाँ भी स्थापित करनी पड़ी । ज्ञातव्य है कि पल्लव राजा महेन्द्र वर्मन पहले जैन धर्मी थे परन्तु बाद शैवधर्मी बन गए। और उन्होंने अनेक जैन मंदिरों में शैव मूर्तियाँ स्थापित की । इस प्रकार हम देखते है के सातवीं शताब्दी में शैव धर्म के प्रभाव के कारण अंगकोर के मंदिरों में भी हिन्दू देवताओं को प्रतिष्ठित किया गया । लेकिन बारहवीं शताब्दी में थाई और चाम लोगों ने इन मंदिरों को पूर्णतया नष्ट कर दिया । शिवलिंगों को तोड़ दिया और मूर्तियों को खण्डित कर दिया । वहाँ के लोगों और इतिहासकारों के अनुसार वहाँ बुद्ध की कोई मूर्ति नहीं थी । क्योंकि अगर बुद्ध की मूर्ति होती तो थाई और चाम लोग जो स्वयं बौद्ध धर्मी थे बौद्ध की मूर्तियों को नष्ट नहीं करते ।
आज भी वहाँ हजारों जैन मूर्तियाँ खण्डित अवस्था में पायी गई है। भाग्यवश कुछ मूर्तियां अच्छी अवस्था में भी मिली है । एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि वहाँ पर जो मूर्तियाँ है जिनपर सर्पछत्र है वे सभी तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की हैं।
बोरोबदूर मंदिर में नन्दीश्वरद्वीप कीतरह ७२ जिनालय जबकि अंकोरथोम ५२ जिनालय है ।
कंबोडिया की सीमा पर पूर्व में लाओस और थाइलैण्ड है । दक्षिण पूर्व में वियतनाम और पश्चिम में Gulf of Thailand वहाँ की अधिकांश • जनसंख्या खामेर जाति की है। कंबोदिया को संस्कृत में कम्बूजा कहते हैं, जो कभी बहुत बड़ा साम्राज्य रहा था । अंकोरवाट का मंदिर खामेर लोगों की उच्च दक्षता का नमूना है । तथा यह विश्व के आश्चर्यों में एक माना गया है। Candi Plaoson के शिलालेखों से पता चलता है कि यहाँ पर जिन मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की गयी है
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• प्राचीन काल में बर्मा ब्रह्मदेश कहलाता था । यहाँ दो प्रमुख नंदिया चिन्डविन और ईरावती है। ईरावती नदी के पूर्वी किनारे पर श्रीक्षेत्र सबसे प्रमुख धार्मिक स्थान है जहाँ हजारों स्तूप और मंदिर प्रत्येक दिशा में निर्मित किए गए थे । यहाँ बौद्ध मंदिरों का निर्माण राजा अन्नवर ने किया था (अनिरुद्ध) इसके पहले के जो मंदिर एवं मूर्तियाँ पायी जाती है वे निश्चित रूप में तीर्थंकरों के है । बागान म्यूजियम से पाये जाने वाली कुछ तीर्थंकर मूर्तियों का चित्र दे रहे
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