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जैनत्व जागरण.......
also constitute the loftiest permanent residence built any where in the world, past or present, an impressive physical feat to be certain.
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The south side of Mount Kailas also receives maximum solar exposure, a key natural endowment in a brutally cold climate. Moreover, there are a surprising number of cave sites, valley branches, flats, and water sources lying in the lap of the mountain fit for human habitation.
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इन विवरणों के अनुसार कैलाश के स्तूप के समीप में बहुत ही सुसंस्कृत सभ्यता विद्यमान थी जिसे ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में बौद्धों ने अपने प्रभाव में कर लिया। डॉ. बेलेजा ने इनको बौन्पो धर्म से या Zang Zung सभ्यता से युक्त किया है । बौन्पो लोग अपने धर्म का प्रारम्भ शेनारिब से मानते है जिसका अर्थ है सबसे बुद्धिमान व्यक्ति । बौन्पो धर्म के प्रमुख भगवान को तपारिष्ट कहते है जिसका अर्थ है तप द्वारा अपने शत्रुओं का शमन करने वाला । ये शत्रु हमारे आन्तरिक है । काम, क्रोध, लोभ, माया, मोह आदि । तीर्थंकर तप द्वारा अपने आन्तरिक शत्रुओं को जीतकर जिन और अरिहन्त कहलाते है । तपोरिष्ट शब्द ऋषभदेव के लिए ही प्रयुक्त हुआ है ऐसा मेरा मानना है । बौन्यो से पूर्व यहाँ जो लोग थे वह कौन थे और किस संस्कृति के थे । इसके लिये वहाँ के इतिहास पर एक दृष्टि डालना आवश्यक है जिससे घुंघली पड़ी तस्वीर स्वतः ही स्पष्ट हो जायेगी । अभी हाल के शोधों से यह पता चला है कि बौन्पो से पूर्व यहाँ लिच्छवी जाति के राजाओं का शासन था । मनु स्मृति में इन लिच्छवियों को व्रात्य क्षत्रिय कहा गया है । अथर्ववेद में व्रात्य काण्ड मिलता है जो श्रमण परम्परा का पुष्ट प्रमाण है । इसके अलावा साइबेरिया में व्रात्य जाति के लोग आज भी मिलते है इन्हें Buryats कहते हैं जो व्रात्य का ही अपभ्रंश है। ये Buryats श्रमणों को अपना आध्यात्मिक गुरु मानते हैं । पूर्वी भारत की प्राचीन ऐतिहासिक परम्परा के सूत्रधार भी ये व्रात्य क्षत्रिय थे जो श्रमण या निर्ग्रन्थ परम्परा के वाहक रहे विश्व प्रसिद्ध वैशाली गणतंत्र के प्रमुख चेटक भी इसी लिच्छवी जाति के थे जो चौबीसवें तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर