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जैनत्व जागरण......
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थे । ऐसे जिनेश्वर कैलास पर्वत पर मोक्ष गए । समस्त जैन वाड्मय में आचार्य जिनसेन, कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य, श्री जिनप्रभसूरिजी, तथा वर्तमान में स्वामी आनन्द भैरव गिरि, स्वामी पड्वानन्द जी और सहजानंद जी महाराज अपने उल्लेखों में कैलाश पर्वत को ही ऋषभदेव का निर्वाण स्थल अष्टापद बताया है । अष्टापद के विषय में विभिन्न शास्त्रों में तथा भिन्नभिन्न समय में, भिन्न-भिन्न महापुरुषों द्वारा रचित वर्णनों में अष्टापद का कैलाश के रूप में वर्णन मिलना स्वयं में एक पुष्ट प्रमाण है । क्योंकि यदि यह वर्णन काल्पनिक होता तो एक व्यक्ति की कल्पना में होता सभी की कल्पना एक जैसी कैसे हो सकती है ।
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कैलाश और अष्टापद दोनों का एक ही पर्यायवाची अर्थ है स्वर्ण या सोना । प्राकृत भाषा में अष्टापद को अट्ठावय कहा गया है । जिसका अर्थ भी स्वर्ण होता है । सूर्य की किरणें जब अष्टापद पर पड़ती है तो वह स्वर्ण की तरह चमकता है । कैलाश के दक्षिण में स्वर्ण की खानों का उल्लेख साहित्य में मिलता है। प्राचीन समय से यहाँ पर प्रचुर मात्रा में सोना निकाला जाता था । भारतीय व्यापारी भी वहाँ से सोना लाते थे । इसका वर्णन ए. एच. फ्रेन्के ने अपनी किताब 'दि वेस्टन तिब्बत' में किया है। चीन का इस क्षेत्र पर अपना अधिकार बनाये रखने का यह भी एक कारण है । इस संदर्भ में एक और महत्वपूर्ण प्रमाण तीसरी, चौथी और छठी शताब्दी में निर्मित एलोरा की सोलह और तीस नम्बर की गुफाएँ हैं जिन्हें बड़ा कैलाश और छोटा कैलाश कहा जाता है। छोटा कैलाश तो जैन गुफा है और बड़ा कैलाश शैव गुफा मानी गयी है लेकिन वास्तविकता यह है कि ये गुफा भी प्रारम्भ में जैन गुफा ही थी जिसके प्रमाणस्वरूप इस गुफा के शिखर पर जैन मूर्तियाँ आज भी देखी जा सकती है । कैलाश के पश्चिम में जो गुफा है उसमें भी जिन मूर्ति प्रतिष्ठित है जो बौद्धो के अधिकार में है 1
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यक्ष मान्यता जैन धर्म में आदिकाल से चली आ रही है । पुराणों में मणिभद्र यक्ष का निवास स्थान कैलाश बताया गया है जो ऋषभदेव स्वामी के निर्वाण स्थल पर यक्षों का वास, यक्षों की परम्परा को ऋषभ परम्परा से सीधा जोड़ता है । महुडी के यक्ष घण्टाकर्ण बद्रीनाथ तीर्थ के