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जैनत्व जागरण .......
तीर्थकरों के प्रामाणिक इतिहास पर यह शोध लेख देने का प्रमुख कारण यही है कि हम अपने प्राचीन इतिहास से अवगत हो और हमें गर्व होना चाहिए कि हमने एक ऐसी संस्कृति में जन्म लिया जो मानव इतिहास एवं सभ्यता की जननी कही जा सकती है । कैसे थे वे लोग ? कैसा था उनका अथाह आत्मज्ञान ? हम सोच भी नहीं पाते क्योंकि हमारी दृष्टि संकुचित होती जा रही है । मैं मेरे में ही उलझकर अपने तक ही सीमित बन गए हैं। इस मैं - मेरे को छोड़कर सर्वदर्शी, दूरदर्शी बनना होगा, तभी मानव जाति का उत्थान संभव होगा । समर्पित है यह कृति यह प्रयास यह जीवन, उन तीर्थंकरों के प्रति जो हमारे परम आदर्श हैं ।
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चौबीस तीर्थंकर पुरासाक्ष्यों एवं ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में
आज से लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व जापान के एक विद्वान सुजुको ओहिरो का एक लेख पढ़ने में आया जिसमें चौबीस तीर्थंकरों के अस्तित्त्व पर प्रश्न चिन्ह लगाया गया था । उनके कहने का सार यह था कि इन चौबीस तीर्थंकरों में भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर के अलावा कोई वास्तविकता नहीं है । ये आज के प्रचलित हिन्दू धर्म के चौबीस अवतारों तथा बौद्ध धर्म के चौबीस बुद्धों का सरासर अनुकरण है । दुर्भाग्यवश जैन समाज कुछ प्रतिष्ठित लोग भी इन बीस तीर्थंकरों के अस्तित्व को लेकर असमंजस में है । इस विषय पर अध्ययन करके उपलब्ध साहित्यिक, पुरातात्त्विक और प्राचीन परम्पराओं के आधार पर कुछ निष्कर्ष निकाले हैं जिन्हें आपके समक्ष रखा जा रहा है ।
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तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता की खोज करने से पूर्व तीर्थंकरों के विषय में जानना आवश्यक है । ये तीर्थंकर शब्द कहाँ से आया, इसका अर्थ क्या है ? ये इतना महत्त्वपूर्ण क्यों है ? और इसकी विशेषताएँ क्या है ? सबसे प्राचीन चली आ रही परम्परा 'समन' है । विश्व के प्राचीन इतिहास का अवलोकन करने से सभी प्राचीन संस्कृतियों में समन परम्परा मिलती है। 'समन' और 'जिन' शब्द का सबसे प्राचीन रूप हमें साइबेरिया, मंगोलिया तथा चीन में मिलता है । यह उत्तरी ऐशिया के 'इवेंक' भाषा का शब्द है । मंगोलियन और चीनी भाषा में 'जिन' का अर्थ है 'शुद्ध' । चीन में