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जैनत्व जागरण.......
सत्य-संतोष प्रदान भिक्षाजीवी होता है जबकि क्षत्रिय ओजस्वी, तेजस्वी, पराक्रमशाली एवं प्रभावशाली होता है । धर्म - शासन के संचालन और रक्षण में यह क्षत्रिय वृत्तियाँ होना आवश्यक है । ब्राह्मण कुल का व्यक्ति तेजस्वी और त्यागी नहीं होता । इसी लिए ऋषभदेव से महावीर तक सभी तीर्थंकर क्षत्रियकुल में हुए । तीर्थंकर अपनी तप- साधना स्वयं करते हैं किसी देव, दानव या मानव का सहारा नहीं लेते हैं । जब श्रमण भगवान महावीर से देवेन्द्र ने आकर निवेदन किया कि 'भगवन् आप पर भयंकर कष्ट और उपसर्ग आने वाले है अत: मैं आपकी सेवा में रहकर इन कष्टों को दूर करना चाहता हूँ आप ऐसी आज्ञा दें ।' उत्तर में प्रभु ने कहा 'हे शक्र ! स्वयं द्वारा बाँधे हुए कर्मों को स्वयं ही भोगना होता है दूसरे किसी की सहायता लेने से कर्म के फल को भोगने का समय आगे पीछे हो जाता है लेकिन कर्म नहीं कटते ।' तीर्थंकर स्वयं ही कर्म क्षय कर अरिहंत पद प्राप्त करते हैं । सब व्यक्ति समान है यानि सबकी आत्मा एक है, । आत्मा एक है इस सिद्धान्त को स्वीकारते हुए भी तीर्थंकरों का जन्म क्षत्रिय कुल में माना गया क्योंकि क्षात्र तेज वाला शस्त्रास्त्र सम्पन्न व्यक्ति ही राजवैभव को साहसपूर्वक त्यागकर अनेक कष्टों और बाधाओं का सामना कर अहिंसा का पूर्णरूपेण पालन कर सकता है । अपनी कठोर साधना और तपोमय जीवनचर्या से तीर्थंकरों ने यह दिखाया कि प्रत्येक व्यक्ति अपने साहस और पुरुषार्थ से अपने कर्मों को क्षय कर सकता है । कर्मों के अशुभ फल को भोगते समय भी घबराकर भागना वीरता नहीं बल्कि धैर्य के साथ उसका सामना करना और अपने शुभ ध्यान से कर्मों को काटना ही वीरत्व है ।
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तीर्थंकरों के गुणों का वर्णन 'नमोत्थुणं' नामक प्राचीन प्राकृत स्तोत्र में मिलता हैं । इसमें तीर्थंकर को धर्म का प्रारम्भ करने वाला, तीर्थ की स्थापना करने वाला, धर्म का प्रदाता, धर्म का उपदेशक, धर्म का नेता, धर्म मार्ग का सारथी और धर्म चक्रवर्ती कहा गया है । तीर्थंकर का कार्य है स्वयं सत्य का साक्षात्कार करना और लोक मंगल के लिए सत्य मार्ग व सम्यग् मार्ग का प्रवर्तन करना । वे धर्म मार्ग के उपदिष्टा और धर्म मार्ग पर चलने वालों के मार्गदर्शक हैं । उनके जीवन का लक्ष्य होता है स्वयं