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आलोच्य महाकाव्यों की प्रवृत्तियाँ तथा विशेषताएँ
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द्वन्द्व युद्ध आदि को वीररस का पर्याय मान लिया जाता है" । वीर रस का सबसे अटपटा चित्रण श्रीधर-चरित में हुआ है । दैवी शक्तियों के हस्तक्षेप, विविध विद्याओं के प्रयोग तथा नायक की दयालुता के सहसा उद्रेक ने माणिक्यसुन्दर के युद्ध-चित्रण को कल्पनालोक का विषय बना दिया है । परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि जैन कवियों की मूल वृत्ति हिंसा के विरुद्ध है । अतः युद्धवर्णन उनके लिये शास्त्रीय विधान की
पूर्ति का साधन है अन्यथा उनके लिये संग्राम विष है और शस्त्र की तो बात क्या, पुष्प से भी युद्ध करना पाप है"। राजपूती तथा खिल्जी सेनाओं के घनघोर युद्धों का जम कर वर्णन करने के पश्चात् नयचन्द्र की यह उक्ति--न पुष्पैरपि प्रहर्त - व्यविधिविधेयः २१- - एकदम हास्यजनक है ।
करुणरस के चित्रण में जैन कवियों का आदर्श भवभूति का उत्तररामचरित रहा है, जिसमें पाषाण को रुलाने तथा वज्र को विदीर्ण करने में करुण रस की सफलता मानी गयी है १२ । जैन महाकाव्यों की करुणा भी चीत्कार - क्रन्दन पर आधारित है । फलतः वह कालिदास की पैनी व्यंजना और मार्मिकता से शून्य है । यद्यपि वह कभी-कभी हृदय की गहराई को अवश्य छूती है पर इसमें सन्देह नहीं है कि जैन कवि मानव हृदय की करुणा को उभारने की अपेक्षा मृत व्यक्ति के गुणों को स्मरण करने तथा विधि को धिक्कारने में ही करुण रस की सार्थकता मान लेते हैं । उसे 'हृदय को विगलित करने वाली करुणा की बरसात की संज्ञा देना जैन कवियों के करुणसचित्रण का भावुकतापूर्ण मूल्यांकन है ।
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करुण के समान अन्य रस भी अंग रूप में जैन महाकाव्यों की रसात्मकता की वृद्धि करते हैं । संस्कृत साहित्य में बीभत्स रस का बहुत कम चित्रण हुआ है । काव्यमण्डन तथा कुमारपालचरित के बीभत्स वर्णन साहित्य के अपवाद रूप स्थलों में हैं । नयचन्द्र आदि कतिपय महान् कवि महाकाव्य में रस के महत्त्व से सर्वथा अभिज्ञ हैं" । यदुसुन्दर भ० बा० महाकाव्य, श्रीधरचरित तथा हम्मीर महाकाव्य में वस्तुतः विभिन्न रसों की इतनी प्रगाढ़ निष्पत्ति है कि उन्हें साहित्य शास्त्र की भाषा
१६. जम्बूस्वामिचरित, ७. २३१-२४१, यदुसुन्दर, १०.३३- ४२ आदि ।
२०. संगरो गर इवाकलनीयः । -म० बा० महाकाव्य, १६.२१; विग्रहो न कुसुमं - रपि कार्य: । - वही, १६.२४
२१. हम्मीर महाकाव्य, १२.८३
२२. अपि ग्रावा रोदित्यपि दलति वक्त्रस्य हृदयम् । - उत्तररामचरित, १.२८ २३. राजस्थान का जैन साहित्य, भूमिका, पृ० १७
२४. वदन्ति काव्यं रसमेव यस्मिन् निपीयमाने मुबमेति चेतः । - हम्मीर महाकाव्य,
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