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-आलोच्य महाकाव्यों की प्रवृत्तियाँ तथा विशेषताएँ
संयम, विवेक, दूरदर्शिता आदि नायकोचित गुणों से शून्य है । शास्त्रबाह्य वर्ग से नायक चुनकर धीरोदात्त के अतिरिक्त धीरप्रशान्त और धीरोद्धत व्यक्ति को भी उस पद पर आसीन करना, जैन महाकाव्यों की एक अन्य विशेषता है ।
महाकाव्य में शान्तरस की प्रमुखता सिद्धान्त से अनुमोदित है, पर जैनेतर कवि इसकी ओर अधिक आकृष्ट नहीं हुए हैं । ऐसे जैनेतर महाकाव्यों की संख्या अत्यल्प है जिनमें शान्तरस को अंगी रस की प्रतिष्ठा मिली है । जैन कवियों ने शास्त्रमान्य शान्त रस की व्यावहारिक निष्पत्ति से उसे अभूतपूर्व गौरव प्रदान किया है । यह पाठक को विषयभोग से विमुख कर निर्वेद की ओर प्रवृत्त करने के उनके लक्ष्य के अनुकूल है | कन्नड कवि रन्न ( दसवीं शताब्दी) द्वारा अंकित प्राचीन जैन परम्परा में जिनेन्द्र एकमात्र शान्तरस के पोषक हैं और उसका स्थायी भाव 'तत्त्वज्ञान' है ( निनगे रसमोन्दे शान्त मे जिनेन्द्र ) " । आचार्य हेमचन्द्र का काव्यानुशासन प्रकारान्तर से इसका समर्थन करता है" । आलोच्य युग के जैन कवियों के लिये शान्त साधिराज है और काव्य की सार्थकता उसके शान्तरस से परिपूर्ण होने में" है । जैन पौराणिक महाकाव्यों में तो इस 'रसाधिप' की उच्छलता स्वाभाविक थी। जिन महाकाव्यों का अंगी रस शृंगार अथवा वीर है, उनमें से भी अधिकांश की परिणति शान्तरस में हुई है । श्रीधरचरित तथा भरत - बाहुबलि - महाकाव्य इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय हैं । महाकाव्य में शान्तरस को मुख्य रस के रूप में प्रतिष्ठित करना जैन कवियों की श्लाघ्य उपलब्धि है ।
काव्य में शृंगार रस की स्थिति के सम्बन्ध में जैन कवियों का दृष्टिकोण अस्पष्ट, बल्कि परस्परविरोधी है । रत्नचन्द्र के लिये शृंगार किपाक के समान त्याज्य है" । पद्मसुन्दर ने श्रृंगार को रसराज का पद दिया है और उसकी तुलना में अन्य रसों को तुच्छ माना है" । यद्यपि नयचन्द्र भी आवेश में 'रतिरस' को
६. श्रृंगारवीरशान्तानामेकोऽङ्गीरस इष्यते । - साहित्यदर्पण, ६।३१७
10, Contribution of Jainism to Indian Culture ; Ed. R. C. Dwivedi, P. 43.
११. तथा हि तत्त्वज्ञानस्वभावस्य शमस्य स्थायिनः........ । – काव्यानुशासन, विवरण, पृ० १२१
१२. रसाधिराजं सेवस्व शान्तं शान्तमनाश्चिरम् । - प्रद्युम्नचरित, १२-२४३
शान्तः रसः पूरितः । - हीरसौभाग्य, ११-६४
भज शान्तरसं तरसा सरसम् । - भ० बा० महाकाव्य, १७-७४ १३. किपाकसदृशं मुंच शृंगारं विरसं पुरः । प्रद्युम्नचरित, १२.२४३ १४. अन्यरसातिशायी श्रृंगारः । - यदुसुन्दर, ६.५३