________________
जैन संस्कृत महाकाव्य
'परमात्मरस' से श्रेष्ठ घोषित कर गये" तथापि उनका विवेकसम्मत मत यह प्रतीत होता है कि काव्य में प्रधानता किसी भी रस की हो, श्रृंगार का पुट काव्यास्वाद को दूना कर देता है ।" जैन कवियों की निवृत्तिवादी विचारधारा और श्रृंगार रस में स्पष्ट विरोध है किन्तु उन्होंने शृंगार को न केवल अपने महाकाव्यों
प्रमुख स्थान दिया है अपितु कुछ काव्यों में, माघ आदि के अनुकरण पर, उसका इस मुक्तता से चित्रण किया है कि वे ' कामकला' के सिद्धहस्त आचार्य प्रतीत होते हैं । यह भी माघ के अत्यधिक प्रभाव का परिणाम है कि कतिपय वीररसप्रधान काव्यों में किरातार्जुनीय तथा शिशुपालवध के समान शृंगार का कामशास्त्रीय शैली में इतनी प्रगाढता से निरूपण किया गया है कि उनमें गौणरस (शृंगार ) ने अंगी रस को रौंद Aster है और ये शृंगारप्रधान रचनाओं का आभास देते हैं । शृंगार के चित्रण में खण्डता, कलहान्तरिता, मुग्धा आदि नायिका - भेदों तथा सम्भोग एवं विपरीत रति ( पुंश्चेष्टितमाततान - यशोधरचरित, ३.८७ ) का खुला वर्णन 'आत्मा को जाग्रत करने वाली मनुहार' कैसे है, यह निष्पक्ष समीक्षक की समझ से परे है । पर यह तथ्य है कि शृंगार का स्वच्छन्द चित्रण करने वाले जैन कवियों की भी वृत्ति उसमें नहीं रमती । अश्वघोष की तरह उन्हें भी नारी मलमूत्र का कुत्सित पात्र प्रतीत होने लगती है । ७
१०
इतिहास प्रसिद्ध वृत्तों पर आधारित महाकाव्यों के अतिरिक्त कतिपय शास्त्रीय महाकाव्यों में भी वीर रस की अंगी रस के रूप में निष्पत्ति हुई है । शृंगार को ब्रह्मानन्द से श्रेष्ठ मानने वाले नयचन्द्र को अब 'समरसम्भवरस' को 'रतिरस' से उच्चतर धरातल पर प्रतिष्ठित करने में संकोच नहीं है ।" जैन महाकाव्यों में वीर रस के नाम पर अधिकतर वीररसात्मक रूढ़ियों का निरूपण हुआ है, जिनमें योद्धाओं की वीरता की अपेक्षा युद्ध के पूर्वरंग के रूप में धनुषों की टंकार, कबन्धों के नर्तन, १५. रतिरसं परमात्मरसाधिकं कथममी कथयन्तु न कामिनः । - - हम्मीर महाकाव्य,
७. १०४
१६. रसोऽस्ति यः कोऽपि परं स किंचिन्नास्पृष्टशृंगाररसो रसाय । - वही, १४-३६१७. पुरीषमूत्रमूषासु योषासु । - श्रीधरचरित, ६-१४४
यत्र गर्हितं किचित्तत्सर्वं स्त्रीकुटीरके ।
वर्चोमूत्राद्यसृङ्मांससम्भृते कीकसोच्चये ॥ -- जम्बूस्वामिचरित, १०-१३ तुलना कीजिये - वन्मूत्रक्लिन्नं करिवरशिरस्स्पधि जघनम् । – पुरुषार्थोपदेश,
२८
१५. श्रृंगारतः समरसम्भवो रसो नूनं विशेषमधुरत्वमंचति । - हम्मीरमहाकाव्य. १२.१३