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( xxviii ) आस्रव, अजीवाधिकरण आस्रव; (द) बन्ध; (य) संवरभावसंवर, द्रव्यसंवर; (र) निर्जरा-विपाकजा निर्जरा, अविपाकजा निर्जरा; (ल) मोक्ष-महत्त्व, मोक्ष-प्राप्ति के साधन (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र); फल, तीर्थकरत्व प्राप्ति के साधन; (व, श) पुण्य और पाप । ४. ईश्वर : जैनी दृष्टिकोण ५. कर्म सिद्धान्त-कर्म का महत्त्व, कर्मबन्ध के कारण, कर्मों के भेद एवं स्वरूप, कर्मों का फल, कर्म और पुनर्जन्म । ६. अनेकान्तवाद
और स्याद्वाद; ७. स्याद्वाद और सप्तभंगी। ८. नयवाद-नय का लक्षण, नय : प्रकार एवं स्वरूप [नगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़,
एवंभूत] । (ख) धार्मिक पक्ष
३६४-३६७ १. मुनि का आचार या श्रमणाचार-मुनियों का महत्त्व, मुनियों के प्रकार [यति, पारिव्राजक, ऋषि, भिक्षुक, श्रमण क्षपण, संन्यासी, अमोघवादी मुनि, सिद्ध, निर्ग्रन्थ मुनि (पुलाक, वकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ, स्नातक); मुनियों के कर्तव्य; मुनि-धर्म (नियम)-पाँच महाव्रत (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रहत्याग); पाँच समिति (ई, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण, उत्सर्ग); गुप्ति; मूलगुण; उत्तरगुण, परीषह; तप; अनुप्रेक्षा; चारित्र; कषाय]; मुनिसंघ; मुनि-दीक्षा; पतित (भ्रष्ट) मुनि । २. योगयोग की व्युत्पत्ति, योग के लक्षण, योग : प्रकार एवं स्वरूप (योग, समाधान या समाधि, प्राणायाम, धारणा, आध्यान, ध्येय, स्मृति, ध्यान का फल, ध्यान का बीज, प्रत्याहार) । ३. ध्यान-ध्याय की व्युत्पत्ति; ध्यान के अंग (ध्याता, ध्यान, ध्येय); ध्यान का स्वरूप; ध्यान की क्रिया; ध्यान : प्रकार एवं स्वरूप (आर्तध्यान-बाह्य आतध्यान और आभ्यन्तर आतध्यान; रौद्रध्यान, धर्म्यध्यान-बाह्य धर्म्यध्यान और आभ्यन्तर धर्म्यध्यान, शुक्लध्यान)। ४. गृहस्थ का आचार या श्रावकाचार। ५. देवता
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