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निर्दोषी, निरोग, मद्य-त्यागी प्रभृति मानवीय गुणों से शोभित हो अथवा गुणग्नाही हो बही वास्तव में परमात्मा का पुजारी हो सकता है। जो पाँच इन्द्रियों के विविध कुविषयों की चाह रखता हो वह पूजक पद के योग्य नहीं इस विषय में श्री वसुविन्दु आचार्य का कथन है
न्यायोपजीवी गुरुभक्तिधारी कुत्सादिहीनो विनयप्रपन्नः । विप्रस्तथा क्षत्रियवैश्यवर्गो व्रतक्रियावन्दन शीलपात्रः।। श्रद्धालुटातृत्वमहेछुभायो ज्ञाता श्रुतार्थश्च कषावहीनः ।
कलंकपंकोन्मदतापवादकुकर्मदूरोऽहंदुदारबुद्धिः ॥' इस प्रकार का पूजक शास्त्र में यज्या, बाजक, यष्टा, पूजक, यजमान, षट्कर्मा, यागकृत, संघी, प्रतिष्ठापक कहा गया है।
जिसकी श्रद्धा लौकिक विषयों में हैं उसको आस्था परमात्मा के गुणों में कैसे हो सकती है अतः पूजक को लौकिक वस्तुओं की चाह के बिना ही शुद्धभाव से 'भगवत्पूजन करना चाहिए।
पूजा-शुद्ध मन, वचन तथा वस्त्रशोभित शरीर से, परमेष्ठी के गुणों का कीर्तन करते हुए, तन्मयता से प्रसन्न होकर जल-चन्दन आदि द्रव्यों के अर्पण करने का पुरुषार्थ होना पूजा का क्रियात्मक रूप है। पूजा की परिभाषा पूर्व प्रकरण में भी विश्लेषित है। उसका यह रचनात्मक रूप है। पूजा-फल
पचित्र अन्तःकरण से भगवान की नित्य भक्ति करनेवाला भक्त जब भगवान् के पद को प्राप्त कर लेता है, पुजा का वही अन्तिम या पूर्ण फल कहा जाता है। इसके मध्य में लौकिक श्रेष्ठ फल की प्राप्ति हो जातो है। इस विषय में श्री कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा कहा गया है
पूयाफलेण तिलोए सुरपुज्जो हबेइ सुद्धमणो ।
दाणफलेण तिलोए सारसुहं भुंजदे णियद।' जो मनुष्य शुद्धभावों से श्रद्धापूर्वक भगवान् जिनेन्द्र का पूजन करता है वह पूंजन के फल से त्रिलोक का ज्ञाता, अधीश (भगवान) हो जाता है तथा देवों-इन्द्रों से भी पूज्य हो जाता है और जो सुपात्रों के लिए आहार, ज्ञान औषधि तथा अभय
1. आ. जयसेन : वसांवन्दु प्रतिष्ठापाठ, सं. हीरालाल दोशी, प्र. वही सोतापुर. ५452 वी.नि., पृ. 19.
. श्लोक 77-TH. 2. पूजा के स्वरूप- विश्लेषण के लिए देखिए इसी अध्याय का पृष्ठ 2 ४. आ. कुन्दकुन्द : स्यणसार : सं. ग. देवेन्द्रकुमार जैन : प्र. ग्रन्थ प्रकाशन समिति इन्दौर : 1974 :
पृ. 59. गाधा [.
25 :: जैन पूजा काञ्च : एक चिन्तन