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इस प्रकार भगवत्पूजा के छह प्रयोजन (लक्ष्य) युक्ति तथा प्रपाणों से सिद्ध होते हैं, बिना प्रयोजनों के किसी भी मानव का भगवद्भक्ति का भाव उत्पन्न नहीं हो सकता। पूजा की रूपरेखा
अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु-इन पंच परमेष्ठी, जैसे पूज्य महापुरुषों के गुणों में श्रद्धापूर्वक आदर-सत्कार की प्रवृत्ति को 'पूजा' कहते हैं अथवा जिसके द्वारा पूज्य पुरुषों के गुण पूजे जाते हैं, तथा पूज्य पुरुषों के गुणों को पूजना, गुणों का अर्चन-पूजन कहा जाता है। जैसा कि कहा है-'पूज्येषु गुणानुरागो भक्तिः ' अथवा ‘गुणेषु अनुरायो भक्तिः'' अर्थात् पूज्य पुरुषों के गुणों में रुचिरूप परिणाम तथा उनके समान गुणों को प्राप्त करने की इच्छा करना पूजा या भक्ति कही जाती
है।
"अर्हदाचार्यबहुश्रुतेषु प्रवचनेषु च भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्तिः तात्पर्य यह कि अरिहन्त परमात्मा, आचार्य, उपाध्याय, साधु और उनके प्रवचनों में विशुद्ध भावपूर्वक अनुराग होना 'भक्ति या पूजा' है।
'अमरकोष' में पूजा के पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख प्राप्त है- 'पूजा नमस्यापचितिः सपर्यार्चार्हणाः समाः' ।
पूजा-पूजन पूजा, पुज पजायां-धातु से अङ्ग प्रत्यय द्वारा पूजा की सिद्धि । ममस्या-नमस्करणं नमस्या, नमस् + य + अ । आ, नमस्कार करना। अपचिति-अप + चायू (चि) + ति = अपचिति = निर्दोष भक्ति करना ।
सपर्या-सपर पूजायां, सपर + य - अ + आ = सपर्या = गुणों की प्रशंसा करना।
अर्चा-अर्च् पूजायां, अर्च् .. अ आ = अर्चा = गुणों का स्तवन करना। अहणा-अर्ह पूजायां, अहं + यु (अन) + आ = अर्हणा = गुणों का आदर
करना।
इनके अतिरिक्त कृति, स्तवन, कीर्तन, भक्ति, श्रद्धा, आदर, उपासना, वन्दना, स्तुति, स्तब, स्तोत्र, नुति, ध्यान, चिन्तन, अर्चना, प्रणाम, नमोऽस्तु-ये शब्द भी पूजा के वाचक हैं। प्राकृत-संस्कृत और हिन्दी साहित्य के ग्रन्थों में इन शब्दों के प्रयोग बहुधा दृष्टिगत होते हैं, लोक-व्यवहार में भी इनके प्रयोग बहुलता से देखे जाते हैं।
I. दि. जैन पूजन संग्रह : सं. राजकुमार शास्त्री, इन्दौर : प्राक्कथन, पृ. 4. 1458. 2. आचार्य पूज्यपाद : नवार्थसिद्धि : सं. पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, सौलापुर, 1938 ई., अ.-,
सूत्र 24, पृ. ५21. 3. अमरसिंह : नापलिंगानुशासनम् : सं. डॉ. रामकृष्ण भण्डारकर, प्र. निर्णय-सागर प्रेस बम्बई :
1880 : द्वि. कापड : पध-५6.
24 :: जैन पुजा-काव्य : एक चिन्तन