Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
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अपना घाव खुद भर सके या मनुष्यकृत नियमन के
ऐसा कोई यन्त्र नहीं जो बिना इधर-उधर घूम सके - तिर्यग् गति कर सके। एक रेलगाड़ी पटरी पर अपना बोझ लिए पवन बेग से दौड़ सकती है पर उससे कुछ दूरी पर रेंगने वाली एक चींटी को भी वह नहीं मार सकती । चींटी में चेतना है, वह इधर-उधर घूमती है। रेलगाड़ी जड़ है, उसमें वह शक्ति नहीं । यन्त्र-क्रिया का नियामक भी चेतनावान् प्राणी है । इसलिए यन्त्र और प्राणी की स्थिति एक-सी नहीं है। ये लक्षण जीवधारियों की अपनी विशेषताएँ है। जड़ में ये नहीं मिलती ।
जोव के नैश्चयिक लक्षण
आत्मा का नैश्चयिक लक्षण चेतना है । प्राणी मात्र में उसका न्यूनाधिक मात्रा में सद्भाव होता है । यद्यपि सत्ता रूप में चैतन्य शक्ति सब प्राणियों में अनन्त होती है, पर विकास की अपेक्षा वह सब में एक सी नहीं होती । ज्ञान के श्रावरण की प्रबलता एवं दुर्बलता के अनुसार उसका विकास न्यून या अधिक होता है । एकेन्द्रिय वाले जीवों में भी कम से कम एक ( स्पर्शन ) इन्द्रिय का अनुभव मिलेगा । यदि वह न रहे, तब फिर जीव और अजीव मं कोई अन्तर नहीं रहता । जीव और जीव का भेद बतलाते हुए शास्त्रों में कहा है- " सव्व जीवाणं पि य अक्खरस्स श्रतमो भागो निच्चुग्धाडियां । मां विपुण आवरेज्जा, तेण जीवा अजीवत्तणं पांवेज्जा" - केवलज्ञान ( पूर्ण ज्ञान ) का अनन्तवां भाग तो सब जीवों के विकमित रहता है। यदि वह भी श्रावृत्त हो जाए तो जीव जीव बन जाए । मध्यम और विराट् परिमाण
उपनिषदों में श्रात्मा के परिमाण की विभिन्न कल्पनाएं मिलती हैं + यह मनोमय पुरुष ( आत्मा ) अन्तर हृदय में चावल या जौ के दाने जितना है ४ ।
यह श्रात्मा प्रदेश मात्र ( अंगूठे के सिरे से तर्जनी के सिरे तक की दूरी जितना ) है
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यह आत्मा शरीर व्यापी है ४ ।
यह श्रात्मा सर्वमापी है ४४ ।