Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta
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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
न कर्ण है, न वाणी है, न मन है, न तेज है, न प्राण है, न मुख है, न माप है-उसमें न अन्तर है, न बाहर है २५"
संक्षेप में :बौद्ध-प्रात्मा स्थायी नहीं चेतना का प्रवाहमात्र है।
न्याय-वैशेषिक-आत्मा स्थायी किन्तु चेतना उसका स्थायी स्वरूप नहीं। गहरी नींद में वह चेतना-विहीन हो जाती है। वैशेषिक-मोक्ष में उसकी चेतना नष्ट हो जाती है। सांख्य-आत्मा स्थायी, अनादि, अनन्त, अविकारी, नित्य और चित्स्वरूप है। बुद्धि अवेतन है-प्रकृति का विवर्त है। __ मीमांसक-आत्मा में अवस्था भेद कृत भेद होता है, फिर भी वह नित्य है।
जैन-आत्मा परिवर्तन युक्त, स्थायी और चित्स्वरूप है। बुद्धि भी वेतन है। गहरी नींद या मूर्छा में चेतना होती है, उसकी अभिव्यक्ति नहीं होती, सूक्ष्म अभिव्यक्ति होती भी है। मोक्ष में चेतना का सहज उपयोग होता है। चेतना की श्रावृत दशा में उसे प्रवृत्त करना पड़ता है-अनावृत्तदशा में वह सतत प्रवृत्त रहती है। औपनिषदिक आत्मा के विविध रूप और जैन दृष्टि से तुलना
औपनिषदिक सृष्टि क्रम में आत्मा का स्थान पहला है। 'आत्मा' शब्द वाच्य ब्रह्म से आकाश उत्पन्न हुआ। आकाश से वायु, वायु से अमि, अनि से पानी, पानी से पृथ्वी, पृथ्वी से औषधियां, श्रीषधियों से अन्न और अन्न से पुरुष उत्पन्न हुआ। वह यह पुरुष अन्न रसमय ही है-अन्न और रस का विकार है। इस अन्न रसमय पुरुष की तुलना औदारिक शरीर से होती है। इसके शिर आदि अंगोपांग माने गए हैं। प्राणमय प्रात्मा (शरीर) अन्नमय कोष की भांति पुरुषाकार है। किन्तु उसकी भांति अंगोपांग वाला नहीं है । पहले कोरा की पुरुषाकारता के अनुसार ही उत्तरवती कोश पुरुषाकार है। पहला कोश उत्सरवती कोश से पूर्ण, व्यात या मरा हुआ है । इस प्राणमय शरीर की तुलना स्वासोच्छ्वास-पर्याति से की जा सकती है।