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प्रन्थकार की जीवनी। भेष लेकर धीरे धीरे त्याग पञ्चखानको बढाता हुआ निष्कपट होकर उसे करता चलता हूँ, नतु किसीके उपदेश या संग सोहबतसे मैंने भेष अंगीकार किया है * * * * * ____ "स्वमतमें तो मेरी प्रसिद्धि कम है, परन्तु अन्य मतके बड़े बड़े विद्वान, स्वामि, सन्यासी, बैरागी, कनफटा, दादू-पंथी, कवीरपंथी, निर्मले, उदासी जोकि उन मतोंके अच्छे२ महात्मा वाजते हैं उन लोगोंसे मेरी वार्तालाप हुई, और उसीके घरोंका प्रमाण देकर उसके घरकी न्यूनता दिखाकर और जैनी नामसे उन लोगोंमें प्रसिद्ध हो रहा है सो यह लिंग छोडनेसे जिनधर्मकी हंसी वे लोग करेंगे उस धर्मकी हंसीसे लाचार होकर भेष नहीं छोड़ सकता। और जो लोग मेरे वास्ते ऐसा कहते हैं तो मैं उसका उपगार मानता हूं', क्योंकि वे लोग गृहस्थि वगैरः से ऐसा कहते रहेंगे तो मेरे पास गृहस्थियोंकी आमद-रफत कम होगी। सो वे ऐसा कहेंगे तो मैं बहुत राजी रहूंगा। और तुम्हारा चुप होना ही अच्छा है क्योंकि जैसा मैं कहता हूँ ऐसा ही वे लोग भी कहते हैं। इसलिये तुम्हारा जवाब देना ठीक नहीं, क्योंकि मेरा तुम्हारा धर्म सम्बन्ध है, न तु दृष्टिराग" ..
ये उपरके प्रश्नोत्तरवाले अंश यहांपर उपयुक्त होनेसे संक्षेपमें उद्धृत करके दिखाये गये हैं। विस्तारसे देखनेकी जिनको इच्छा हो वे स्याद्वादानुभव रत्नाकर' के २६६ पृष्ठसे देखें।
जमनालाल कोठारी।
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