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[द्रव्यानुभव-रत्नाकर
कहे, तेसे ही द्रव्यार्थिकनयके अन्तर्गत सर्वनय आते हैं, तो स्वय प्रक्रियासे नव नय कहते हैं।
तो हम तुम्हारेको कहते हैं कि हे भोले भाई कुछ बुद्धिका विजय कर कि उस जगह जुदा २ कहनेका जैसा प्रयोजन है तैसा यालित पर्यार्थिक कहनेका प्रयोजन नही। क्योंकि देखो जैसे जीव अजोवन दो मुख्य ज्ञेय पदार्थ हैं और वन्ध मोक्ष, ये दो मुख्य होय और उपादेय है, सोबन्धका कारण तो आश्रव है, सो होय कहतां छोड़ना, और मोक्ष मुख्य पुरुषार्थ है सो उसके दो कारण हैं ? १ सम्बर, २ निर्जरा, इस रीतिसे सात तत्व कहनेका प्रयोजन है। और आश्रव नाम आनेका है सो उस आनेके दो भेद हैं, उसीका नाम शुभ, अशुभ कहते हैं। इसलिये इनके भेद अलग (जुदा) करके प्रयोजन सहित नव तत्वका कथन है। परन्तु द्रव्यार्थिक, पर्यार्थिकका भिन्न उपदेश देना कोई प्रयोजन है नहीं। क्योंकि देखो “सप्तमूल नयापनत्ता” ऐसा सूत्रमें कहा है, सो इस सूत्रके वाक्यको उलंघकर नव नय कहना सो महा मिथ्यात्व का कारण है, सो हे पाठक गणों ऊपर लिखित विचारको सूक्ष्म बुद्धि से बिबेचन करो, देवसेनबोटकमतिकी कही हुई नव नयको परिहरी, उस उत्सूत्र भाषी दिगम्बरका संग कभी मत करो, सिद्धान्तोंमें कही जो सात नय उसको हृदयमें धरो, अपने आत्म कल्याणको करो, जिस से संसारमें कभी न फिरो, जिससे मुक्ति पद जाय वगे। खैर। ____ अब और भी इस देवसेन दिगम्बरकी प्रक्रिया दिखाते हैं-कि जो द्रव्यार्थिक आदिक दस भेद कहे हैं सो भी उपलक्षण करके जाना, मुख्य अर्थ मत मानों, केवल नयचक्र भर दिये वृथा पानो, उसकी बुद्धि का क्या ठिकानों। इसलिये अब उसके जो दस भेद हैं उन दस भेदोंकी कहना ठीक नहीं सो किंचित् दिखाते हैं कि जैसे कर्म उपाधि सापेक्ष जीव भाव ग्राहक द्रव्यार्थिक नय कह्या है, तैसे ही जीव संयोग सापक पुद्गलभावग्राहक नय भी कहना चाहिये। इसरीतिसे जो भेद कल्पना करे तो अनन्ता भेद होजाय सो नहीं, किन्तु नयगम आदि अशुद्ध, अशुद्धतर, अशुद्धतम्, शुद्ध, शुद्धतर, शुद्धतम् आदि भेद
'किस
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