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द्रव्यानुभव- रत्नाकर । ]
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पहला शुभब्यबहार उसको कहते हैं कि- जो पुन्यादिककी क्रिया करें । और अशुभध्यवहार उसको कहते हैं कि जो पापादिककी क्रिया करे। और उपचरितव्यवहार उसको कहते हैं— जो धनादि परबस्तु है. उसको अपना कहना ।
अनुपचरितव्यवहार उसको कहते हैं कि- शरीर (देह) मेरा है, सो शरीर उस जीवका है नहीं, क्योंकि परबस्तु है सो यद्यपि धनादिक की तरह शरीर नहीं हैं, तथापि अज्ञान दशासे लौलीभावपना तदात्मभाव से अपना मान रक्खा है, इसलिये इसको अनुपचरित व्यवहार कहते हैं, इसरीति से व्यवहारके भेद कहे।
इन नयोंके भेद द्वादशनयचक्रमें तो एक २ नयके बारह २ भेद कहे हैं, सो वहांसे जानना । परन्तु इस जगह तो कई ग्रंथोंकी अपेक्षासे कहे हैं । सो इसरीतिसे व्यवहारनय कहा ।
४ ऋजुसूलनय
अब ऋजुसूत्रनय कहते हैं कि--ऋजु के० अबक्रपने अर्थात् सरल (सीधा ), सूत्रके ० बस्तुका सरल पनेसे जो बोध, उसका नाम ऋजुसूत्र नय है। इस नयमें बक्रता करके रहित अर्थात् सरल स्वमावको अंगीकार करे, इस कहनेका तात्पर्य यही है कि यह ऋजुसूत्रनय केवल एक वर्त्तमानकालको ग्रहण करे, और अतीत, अनागतकी अपेक्षा न करे, क्योंकि अतीतकालमें जो पदार्थ था सो तो नष्ट हो गया, और भविष्यत कालमें जो होनेवाला है सो उसकी खबर है नहीं, इसलिये 'एक वर्त्तमानकालको ही ग्रहण करे, इसलिये इसको ऋजुसूत्रनय कहा। सो इस ऋजुसूत्रनयमें किसी अपेक्षासे नामादि निक्षेपा भी इस नयके अन्तरगत है, सो विशेष २ प्रथमें ऋजुसूत्रनयमें ही नामादि निक्षेपा कहे हैं। और कई ग्रंथोंमें शब्दनयके अन्तरगत नमादि निक्षेपा कहें हैं, सो इन दो नयके अन्तरगत निक्षेपा कहनेकी अपेक्षा है, सो हम निक्षेपाका वर्णन तो शब्दनयमें करेंगे, इस जगह तो केवल इतना ही कहना था कि नामादिनिक्षेपा ऋजुसूत्रनयमें भी किसों अपेक्षासे प्रथकार कहते हैं।
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