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मूल्यानुभव-रत्नाकर।
और नैयायिक आदिकोंके अनुमानका खंडन तो स्यावाद-रवातारिका, स्याद्वादरत्नाकर और सम्मतितर्क आदि ग्रन्थों में है। मानके व्याप्ति आदिकके खंडन-मंडनकी कोटि भी बहुत क्लिष्ट और अन्य बढ़ जानेके भो भय से यहाँ पर विस्तार न किया। ... अागम-प्रमाण ।
अब पाँचयों भेद आगम को कहते हैं। पेस्तर तो आगमका लक्षण
है कि, आगम क्या चीज़ हैं और आगम किसको कहते हैं ? यदुक्त प्रमाणमयतत्वालोकालंकारे "आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः" इस का अर्थ ऐसा होता है कि आप्त-पुरुषोंके पचनसे जो प्रगट हुआ भर्थ, उसका जो यथावत् जानना उसका नाम आगम है। अब आप्त किसको कहते हैं सो उसका भी लक्षण उसी जगह ऐसा कहा है कि "अभिधेयं वस्तु यथावस्थित यो जानीते यथाज्ञातं चाभिधत्ते स आप्तः" अर्थात् कही जानेवाली वस्तु-पदार्थ को जो ठीक ठीक रीति से जानता हो और जानने के माफिक ठीक तौर से कहता हो सो आप्त हैं। यह आप्तके दो भेद हैं, एक तो लौकिक, दूसरा लोकोत्तर। लौकिक-आप्त में तो जनक आदिक अनेक सत्यवोदि है । और लोकोत्तर तो श्री तीर्थकर आदि अरहन्त वीतराग सर्वशदेव तथा गणधरादि महापुरुष हैं। - उनका जो वचन है सो वर्णात्मक है, अर्थात् पौद्गलिक भाषा वर्गणा से बने हुए अकार आदिक अक्षर रूप हैं। उसी को शव भी कहते हैं। यहां पर जो और मतावलम्बी जिस रीति से शब्द प्रमाण से शाब्दो प्रमा मान कर पद से पदार्थ का अर्थ वा शक्ति का वर्णन करते हैं उसको दिखाते हैं । दा प्रमा के दो भेद हैं, एक तो व्यावहारिक, दूसरी पारमा। सो व्यावहारिक के भी दो भेद है, एक लौकिक वाक्य दूसरी वैदिक। नीलो घटः' इत्यादिक लौकिक वाक्य
थिक। सो व्याव जन्य, दूसरी वाद है। 'वजहस्तः पुरद
हस्तः पुरंदरः' इत्यादिक वैदिक वाक्य हैं। पदके समुदायको
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