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द्रव्यानुभव-रत्नाकर। जिस कालमें जिस प्रदेशमें अनंतकी हानी और असंख्यातकी वृद्धि है
सकालमें अनंतपनेका तो व्यय अर्थात् विनाश, तथा असंख्यातपनेका उत्पाद और अगुरुलघुपनेका गुण ध्रुव है।
इसरीतिसे उत्पाद, व्यय, और ध्रुवता जिसमें होय वही सत् है। इसरीतिसे अधर्मास्तिकायके भी असंख्यात प्रदेशमें समय २ में उत्पाद आदि हो रहे हैं। ऐसे ही आकाश, जीव और पुद्गल में भी जान लेना चाहिये। काल तो उपचारसे द्रव्य है, तो भी समझनेके वास्ते उसमें भी इसरीतिसे तीनों परिणामोंको उतारना चाहिये। इस तरह पांचवां सत्तत्वका किंचित् भेद दिखाया।
अब अगुरुलघुपना कहते हैं कि जिसमें गुरुत्व अर्थात् भारीपन नहो और हलकापन भी न होय उसका नाम अगुरुलघु है। अब इस अगुरुलघुके समझानेके वास्ते दो तीन द्रष्टान्त देते हैं जिससे जिज्ञासु लोग जलदी समझ सकें, क्योंकि इस अगुरुलघुका समझना, कहना अथवा दूसरेको समझाना बहुत मुश्किल है। नाम मात्रसे सब कोई कहते हैं कि हम अगुरुलघु को जानते हैं, परन्तु मेरी इस तुच्छ बुद्धि अनुसार तो अगुरुलघुका समझना और कहना बहुत मुशकिल है। अलबत्त, यदि कोई सत्पुरुष छः द्रव्योंका स्वरूप जानकर एकान्त में बैठकर अपने आत्मअनुभवके जोरसे उस अगुरुलघुका मनन करता रहे तो वह समझ भी सक्ता है, और कह भी सक्ता है । परन्तु जो दुःखगर्भित मोहगर्भित वैराग्यवाले भेषधारी लोग, अन्यमतियोंके पंडितोसे न्याय-व्याकरणादिपढ़कर गुरुकुलवास बिना अथवा शास्त्रोंके अभिप्राय जाने बिना, नवीन ग्रन्थ तस्करवृत्तिसे इधर उधरकी बातोंको लेकर बनाते हैं और भोले जीवोंमें अपनी विद्वत्ता बतानेके वास्ते पुस्तकोमें अनेक तरहके वाद-विवाद लिखकर दूसरेकी निन्दा और अपनी प्रतिष्ठा कर रहे हैं, वे लोग इस अगुरुलघु को यथावत् नहीं कह सक्त, क्योंकि यह अगुरुसघुका विषय बहुत कठिन है। सो यथावत् कहनेकी तो मेरी भी ताकत नहीं, परन्तु उन सत्य उपदेशक गुरुकी चरण-कृपासे इस विषयमें कुछ कह सकता है कि जैसे भित्ति (दिवाल) में सफेदी आदिक है, उस सफेदीमें जो दमक
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