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गुरुकुल-वास शरण गहि प्यारे जो जैन धर्म तें पाया है। मानव भव नहीं बार२ है, चिदानन्द ने यह उपदेश सुनाया है।
[ द्रव्यानुभव - रत्नाकर
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दोहा |
सुमिरन करो श्री वीर का, शासनपति महाराज । मनवांछित फल होत है, सफल होत सब काज ॥ १ ॥ श्री पार्श्व फलौधी ग्राममें, कीनो मैं चौमास । पार्श्वनाथ की शरण में, पूरण ग्रन्थ समास ॥ २ ॥
छ कोट शाखा वयर, उत्तम कुल चन्द्र बखान । खरतर बिरुद धारक सदा, करते आतम ध्यान ॥ ३ ॥ कियो ग्रन्थ मन रंगसे, चिदानंद आनंद । रुचि सहित इसको पढे, मिले सदा सुख कन्द ॥ ४ ॥ युगल बाण निधि इन्दुमें (१९५२) संवत् विक्रम जान । कातिक शुक्ला सप्तमी, गुरु वार पहचान ॥ ५ ॥ रुचि सहित इसको पढे, शुद्ध उपदेश होय मेल । तब अनुभव इसका मिले, जिम दूध मिश्री होय मेल ॥ ६ ॥
द्रव्य अनुभव रत्नाकर, सदा रहो बिस्तार |
रवि चन्द्र जबतक रहे, तब तक ग्रन्थ प्रचार ॥ ७ ॥ ग्रन्थ देख खल पुरुषको, ऊपजे द्वेष अपार । चिदानन्द नहीं दोष कछु, उनके कर्मों की है मार ॥ ८ ॥ पक्षपात इसमें नहीं, अनुभव कियो प्रकाश ।
करें मनन इस ग्रन्थका, सफल होय मन आश ॥ ६ ॥ चिदानन्दको सीख यह, सुनियो चतुर सुजान । बार बार इसको पढ़े, आतम मिले निधान ॥ १० ॥ चिदानंद निज मित्रको, प्रतिबोधन यह ग्रन्थ ।
• उपकारी सब संघ में, जिन वाणी निज पन्थ ॥ ११ ॥ व्यक्तिभाव गुण रहित हूं, शक्ति भाव निज कन्द । गुरु कृपा से मैं भयो, चिशनंद आनंद ॥ १२ ॥
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