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[ द्रव्यानुभव - रत्नाकर ।
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सो ठीक नहीं, किन्तु संख्यात, असंख्यात दो ही कहते तो ठीक होता, अथवा संख्यात और अनन्त ये दो कहते तो ठीक होता, क्योंकि संख्यात कहनेसे तो गिनती आई, और असंख्यात उसको कहते हैं कि जिसकी गिनती नहीं, अनन्त भी उसको ही कहते हैं कि जिसकी गणना न होय, इससे दो का ही कहना ठीक है, तीनका कहना ठीक नहीं । उत्तर:- भो देवानुप्रिय ! अभी तेरे को सत्य उपदेशदाता गुरुका संग हुआ नहीं, केवल दुःखगर्भित और मोह - गर्भित वैराग्यवालों का और अंग्रेजी आदिक विद्यावालों का तथा वर्तमान कालमें नवीन दयानंद मत आर्य-समाजवालों का संग होने से ऐसी शंका होती है। सो शंका दूर करनेके वास्ते शास्त्रानुसार कहते हैं कि शास्त्रोंमें संख्यात, असंख्यात और अनन्त इस अभिप्रायसे कहा गया है कि संख्यात तो उसको कहते हैं कि जैसे गणित विद्यावाले कहीं तो १६ अंकों तक की और कोई २१ की, कोई २६ तककी गणना कहते हैं और कोई ५२ हर्फ तककी और कोई ६६ अक्षर तककी गिनतीको गणित कहते हुए संख्या बांधते हैं सो यहांतक तो संख्यात हुआ । इसके ऊपर जो एक दो हर्फ भी होय तो असंख्यात हो गया । सो संख्या से ऊपर अर्थात् लौकिक व्यवहार की गिनतीसे ऊपरवालेको असंख्यात कहा । इस तरह संख्यात और असंख्यात हुआ । अनन्तका अभिप्राय ऐसा है कि केवल भगवान् जिज्ञासुके समझाने के वास्ते कल्पना करके बतावें उनका नाम अनन्त हैं। अनन्तके भी जैनमत में भेद हैं । भेद में कई अनंतमें तो कल्पना करके वस्तु समझाई गई हैं, और कई भेद में ऐसा कहा गया है कि कोई वस्तु ही ऐसी नहीं है कि जो इस अनन्त को पूरा करे । इस रीति से शास्त्रकारोंने संख्यात, असंख्यात और अनन्त ये तीन भेद कहे हैं। दूसरा एक समाधान और भी देता हूँ, परन्तु इस समाधानमें मेरा आग्रह नहीं है । वह यह है कि संख्यात तो उसको कहना कि जो ऊपर लिखे हरफों तककी गणनामें आ सके, असंख्यात उसको कहना कि जो उससे उपर केवली आदिक कल्पित दृष्टांत द्वारा जिज्ञासुओं को समझावे, और अनन्त उसको कहना कि केवली
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