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[द्रव्यानुभव-रत्नाकर। पण और पदार्थ-निर्णय में तो कोई
१८४] तथापि इन सबोंमें प्रमाण-आदिके निरूपण और पदार्थ-नि तरह का भेद नहीं है, केवल क्रियाकलापादि प्रवृत्तिमें भेद होते। भेद हैं। इसलिये जो इनके शास्त्रोमें आप्तोंका लक्षण किया है सो वत मिलता है। सो ही इस जगह प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारके च परिच्छेदसे उद्धत कर दिखाता हूं। इसमें आप्तका लक्षण मैं पहले लिख चुका हूँ। उसके बाद से वह ग्रन्थ, इस शब्द-प्रमाणको ज्ञातव्य बाबतमें इस प्रकार है
तस्य हि वचनमविसंवादि भवति ५ स च द्वधा लौकिको लोकोत्तरश्च ६ लौकिको जनकादिलोकोत्तरस्तुतीर्थकरादिः ७ वर्णपदवाक्यात्मकं वचनम् ८ अकारादिः पौद्गलिको वर्णः । वर्णानामन्योन्यापेक्षाणां निरपेक्षा संहतिः पदं, पदानां तु वाक्यं १० स्वाभाविकसामर्थ्य , समयाभ्यामर्थबोधनिबन्धनं शब्दः ११ अर्थप्रकाशकत्वमस्य स्वाभाविक प्रदीपवत्, यथार्थायथार्थत्वे पुनः पुरुषगुणदोषावनुसरतः १२ सर्वत्रायं ध्वनिर्विधि-प्रतिषेधाभ्यां स्वार्थमभिदधानः सप्तभंगीमनुगच्छति १३ एकत्र वस्तुन्येकैकधर्मपर्यनुयोगवशादविरोधेन व्यस्तयोः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः कल्पनया स्यात्काराडितः सप्तधा वाकप्रयोगः सप्तभंगी १४”
इन सूत्रोंका विशेष अर्थ तो इनकी टीका स्याद्वादरत्नाकरमें और उसमें प्रवेश करनेके वास्ते बनी हुई स्याद्वादरत्नाकरावतारिका में है। इस जगह तो किंचित् भावार्थ कहता हूं:-पूर्वोक्त लक्षणवाले आप्तके वचन में विसम्बाद किंचित् न होगा, जिसके वचनमें विसंवाद है सो भात नहीं है। वह आप्तके दो भेद हैं, एक तो लौकिक, दूसरा लोकोत्तर । लौकिक में तो जनकादिक अनेक पुरुष है, और लोकोत्तरमें तीथक अर्थात् श्री वीतराग सर्वज्ञदेव आदि हैं। वर्ण-पद-वाक्य रूप वच अकारादिक पौद्गलिक वस्तुको वर्ण कहते हैं। परस्पर अपेक्षा वाले उन वर्णों का जो निरपेक्ष (दूसरे पदों के वर्गों की अप रखनेवाला) समुदाय, उसका नाम पद है। और पदोंका समुदाय उसका नाम वाक्य है। शब्दमें अर्थ प्रकाश करनेक विक सामर्थ्य है, जैसे दीपक में प्रकाश करने की तो
। और पदोंका वैसा ही जो मर्थ प्रकाश करनेकी स्वाभा। करने की सामर्थ्य है।
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