Book Title: Dravyanubhav Ratnakar
Author(s): Chidanand Maharaj
Publisher: Jamnalal Kothari

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Page 218
________________ द्रव्यानुभव - रत्नाकर । ] [ १८७ जल मिलाकर बनाया हुआ शर्बतको जो पुरुष पीता है, उस मिश्रीका और मीर्चका एक समयमें स्वादको जानता है, परन्तु उनके जुदे २ स्वभावको एक समय में कहने को समर्थ नहीं, क्योंकि जानता तो है कि मिर्चका तिखापन है, और मिश्रीका मिठापन है, क्योंकि गलेमें मिर्च तो तेजी देती है और मिश्री मीठी शीतलता को देती है; परन्तु दोनों के स्वादको जानकर भी एक साथ कह नहीं सके। इसरीतिले देवका स्वरूप विचारनेवाला देवमें देवका अस्तिपना और कुदेवका नास्तिपना, यह दोनों को एक समयमें जानता है, परन्तु कह नहीं सकता, इस करके स्यात् अस्ति नास्ति युगपदवक्तव्य सातमा भांगा कहा। इसरीतिसे सप्तभंगी कही । यह आठ पक्ष पूरी भई । इसरोतिसे “उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्" यह लक्षणवाले द्रव्यत्वकी व्याख्या कही । प्रमेय ।. I 1 - अब प्रमेयत्वका स्वरूप लिखते हैं जिससे चौथा सामान्य लक्षण भी जिज्ञासुको मालूम होय । प्रमेय क्या चीज है ? प्रमेय किसको कहते हैं ? प्रमेय नाम उसका है कि जो प्रमाणके विषयभूत होय अर्थात् प्रमाण जिसका निश्चय करे उसका नाम प्रमेय है । सो प्रमेय में दो वस्तु है; एक तो जीव, दूसरा अजीव । सो उस जीवका स्वरूप और अजीव का स्वरूप तो हम पहले छः द्रव्योकी सिद्धिके प्रसङ्ग में दिखा चुके हैं। इस जगह तो जैसे वीतराग सर्वज्ञ देवने अपने ज्ञानमें देखा है और भव्य जीवोंके उपकारके वास्ते जिस तरहसे जीवोंकी गणना की हैं, उसी तरह किञ्चित् दिखाते हैं कि जीव अनन्त है और उस जीव- अनन्तकी गणना कहते हैं। संज्ञी मनुष्य संख्यात, असंज्ञी असंख्यात, नारकी असंख्यात, देवता असंख्यात, तिर्यंच पञ्चेन्द्रिय असंख्यात बेइन्द्रिय असंख्यात, तेइ - न्द्रिय जीव असंख्यात, चोइन्द्रिय जीव असंख्यात, पृथ्वीकाय असंख्यात, अपकाय अर्थात् जलके जीव असंख्यात, तेऊकाय अर्थात् अग्निके जीव असंख्यात, वायुकाय अर्थात् हवाका जोव असंख्यात, प्रत्येक वनस्पतिका जीव असंख्यात, सिद्धका जीव अनन्त, उन सिद्धके जीवोंसे बादर मि Scanned by CamScanner

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