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समान विषयक पूर्व ( पहला ) अनुभव स्मृति का हेतु है । इसलिये पदार्थ का पहला अनुभव तो पदार्थ विषयक संस्कार की उत्पत्ति द्वारा हेतु है, परन्तु पदार्थ के सम्बन्धी पद है। इसलिये पदार्थ के सम्बन्धी जो पद, तिसका ज्ञान संस्कार के उद्बोध द्वारा पदार्थ की स्मृति का हेतु है । इसलिये पद के ज्ञान से पदार्थ की स्मृति संभबती है । जिस जगह एक सम्बन्ध के ज्ञान से दूसरे सम्बन्धी की स्मृति होय, तिस जगह दोनों पदार्थ के सम्बन्ध का जिसको ज्ञान है तिसको एकके ज्ञान से दूसरे की स्मृति होती है । परन्तु जिसको सम्बन्ध का ज्ञान नहीं है, उसको एकके ज्ञान से दूसरे को स्मृति होय नहीं, जैसे पिता पुत्र का जन्यजनकभाव सम्बन्ध है सो जिसको जन्य - जनकभाव सम्बन्ध का ज्ञान होगा, तिसको तो एक के ज्ञान से दूसरे की स्मृति होगी, परन्तु जिसकी जन्य-जनकभाव सम्बंधक ज्ञान नहीं है, तिसको एकके ज्ञानसे दूसरे की स्मृति होय नहीं । तैसे ही पद और अर्थका आपस में सम्बंध को वृत्ति कहते है, तो वृत्तिरूप जो पद अर्थका सम्बंध, तिसका जिसको ज्ञान होगा उसको पदके ज्ञानसे अर्थकी स्मृति होगी । पद और अर्थका वृत्तिरूप सम्बंध के ज्ञान से रहित को पदके ज्ञानसे अर्थकी स्मृति नहीं होगी । इसलिये वृत्ति सहित पदका ज्ञान पदार्थ की स्मृति का हेतु है, सो वृत्ति दो प्रकारकी है, एक तो शक्ति रूप वृत्ति है, दूसरी लक्षणारूप वृत्ति है । न्यायमत में तो ईश्वर की इच्छारूप शक्ति है, और मीमांसकके मतमें शक्ति नाम कोई भिन्न पदार्थ है, वैयाकरण और पतंजलि के मतमें वाच्यवाचक भावका मूल जो पदार्थका तादात्म्य सम्बंध सो ही शक्ति है, और अद्वैतवादी अर्थात् वेदान्तमतमें सर्व जगह अपने कार्य करने का सामर्थ्य ही शक्ति है, जैसे तंतुमें पट करनेका सामर्थ्य रूप शक्ति है, अग्निमें दाह करने का जो सामर्थ्य सो शक्ति है, तैसे ही पदमें अपने अर्थके -ज्ञानकी
सामर्थ्य रूप शक्ति है । परन्तु इतना भेद है कि अग्नि आदिक पदार्थमें जो 'सामर्थ्य रूप शक्ति है, उसमें ज्ञानकी अपेक्षा नहीं, शक्ति-ज्ञान हो अथवा नहो दोनों स्थानों में अग्नि आदिकसे दाह-आदिक कार्य होता है, परंतु
द्रव्यानुभव - रत्नाकर । ]
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