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द्रन्यानुभव-रत्नाकर।
[ १५७ सादिक जाति का श्रोत्र आदिकसे प्रत्यक्ष होय नहीं, किन्तु मादिक आन्तर पदार्थ के प्रत्यक्षका हेतु मन इन्द्रिय है। आत्मा और उसके सुखादिक धर्म से भिन्न को बाह्य कहते हैं, आत्मा और उसके धर्मको आन्तर कहते हैं। जैसे बाह्य प्रत्यक्ष प्रमाके करण श्रोत्र आदिक इन्द्रियां हैं, तैसे ही आन्तर आत्मादिक की प्रत्यक्ष प्रमाका करण मन है। इसलिये मन भी प्रत्यक्ष प्रमाण है, और इन्द्रिय भी है। जब मनमें क्रिया होकर, आत्मासे संयोग होता है, तब आत्माका मानस प्रत्यक्ष प्रमाण है । जिस जगह आत्माका मानस प्रत्यक्ष होता है तिस जगह आत्माका मानस प्रत्यक्ष रूप फल तो प्रमा है, और आत्म-मनका संयोग व्यापार है। क्यों कि आत्म-मनका संयोग मन-जन्य है और मन-जन्य जो आत्मा की प्रत्यक्ष-प्रमा, तिसका जनक है इस लिये व्यापार हैं। तिस संयोगरूपव्यापारवाला आत्माकी प्रत्यक्ष प्रमाका असाधारण कारण है सो प्रमाण है । ज्ञान, इच्छा, प्रयत्न, सुख, दुःख, द्वेष यह आत्माके गुण हैं। तिसका साक्षात् करनेका हेतु भी मन ही प्रमाण है। तिस जगह मनके साथ ज्ञानादिकका साक्षात् सम्बन्ध तो नहीं है, किन्तु परम्परा सम्बन्ध है। अपने सम्बन्धिसे जिसका सम्बन्ध होय उसका नाम परम्परासंबन्ध है । सो ज्ञानादिक का आत्मा में समवाय सम्बन्ध है, इस लिये ज्ञानादिकका सम्बन्धी आत्मा है तिससे मनका संयोग होनेसे परम्परासम्बन्ध मनसे ज्ञानादिकका है। सो ज्ञानादिकका मनसे स्व-समवायसंयोगसम्बन्ध है-स्व कहिये ज्ञानादिक, तिसकासमवाय कहिए समवाय वाला जो आत्मा, तिसका मनसे संयोग हैं। तैसे ही मनकाज्ञानादिक से भी परम्परा सम्बन्ध हैं सो मन-सयुक्त-समवाय है-मनसे संयुक्त कहिये जो संयोग वाला आत्मा, तिसमें ज्ञानादिक का समवाय सम्बन्ध है। तेसे ही ज्ञानत्व, इच्छत्व, प्रयत्नत्व, सुखत्व, दुखत्व, द्वषत्व का भी मनसे प्रत्यक्ष होता हैं, तिस जगह मनसे ज्ञानत्वादिक का स्वाश्रयसमवायि-संयोग सम्बन्ध है-स्व कहिये ज्ञानत्वादिक, तिसके आश्रय शानादिक, तिसका समवायी आत्मा, तिसका मनसे संयोग है।
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