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द्रव्यानुभव-रत्नाकर ।] सर्प, दण्ड, माला, एक एक जिसकी वृत्ति उपहित में
माला, एक एकका तीनों को भ्रम होता है तिस जगह
हितमें जो विषय ऊपजा हैसोही विषय तिसकोप्रतोत है. अन्यको नहीं। इसरीतिसे भ्रमज्ञान इन्दियजन्य नहीं किन्तु
वत्ति रूप है । परन्तु जिस वृत्ति-उपहित चेतनमें स्थित का परिणाम भ्रम है, सो इदमाकार-वृत्ति-नेवसे रज आदिक विको सम्बन्ध होता है । इस लिये भ्रमज्ञानमें इन्द्रियजन्यता प्रतीत होती
इन्दियजन्य ज्ञान नहीं है। इसलिये वेदान्तमतवाले अनिर्वचनीय मन मानते हैं। इस अनिर्वचनीय ख्यातिका निरूपण और अन्यथाख्याति आदिकका खण्डन गौड ब्रह्मानन्द रचित ख्यातिविचारमें लिखा है। सो ख्यातिका प्रसङ्ग तो हमको इस जगह लिखाना नहीं है, मेरे को तो केवल प्रसङ्गसे इतना लिखोना पड़ा। इसतरह वेदान्तसिद्धांत में भ्रमज्ञान इन्द्रियजन्य नहीं हैं, और दूसरा अभावका ज्ञान भी इन्ष्यिजन्य नहीं, किन्तु अनुपलब्धि नाम प्रमाणसे अभावका ज्ञान होता है। इस लिये अभावके प्रत्यक्षका हेतु विशेषणता सम्बन्ध अङ्गीकार करना निष्फल है। और जाति-व्यक्तिका समवाय सम्बन्ध भी नहीं, किन्तु तादात्म्य सम्बन्ध है, उसी रीतिसे गुण-गुणीका अथवा क्रिया. क्रियावानका, कार्य-उपादानकारणका भी तादात्य सम्बन्ध है। इस लिये समवायके स्थानमें तादात्म्य कहना ठीक है। और जैसे त्वगादिक इन्दियाँ भूतजन्य हैं तैसे ही श्रोत्र इन्द्रिय भी आकशिरूप नहीं। और मीमांसाके मतमें तो शब्द दव्य है, वेदान्तमतमें गुण है, परन्तु म्यायमतमें तो शब्द आकाशका ही गुण है। और वेदान्तवाले विद्यारण्यखामी पांचभूतका गुण कहते हैं। और वेदान्तमतमें वाचस्पति मिश्र तो मनको इन्दिय मानता है, और ग्रन्थकार वेदान्तमतवाले मनको इन्द्रिय नहीं मानते हैं। कई वेदान्तियोंके मतमें सुख-दुखका सान प्रमाणजन्य नहीं इस लिये प्रमा नहीं, किन्तु सुख-दुःख साक्षी स। और वाचस्पतिक मतमें सुखादिकका शान मन-रूप प्रमाणजन्य " 'लय प्रमा है। और ब्रह्मका परोक्ष ज्ञान तो दोनों मतमें प्रमा वाचस्पतिके मतमें मनरूप प्रमाणजन्य है। और जिनके मतमें
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