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[द्रव्यानुभव-रत्नाकर
में विलक्षणता नहीं,
प्रत्यक्ष होता हैं तहां तो न्याय और वेदान्त मतमें विलय किन्तु द्रव्यका इन्द्रियसे संयोग ही सम्बन्ध है और इन्दियी जातिका अथवा. गुणका प्रत्यक्ष होता है, तिस जगह न्याय सयुक्त-समवाय सम्बन्ध है, और वेदान्तमतमें संयुक्त-तादात्म्य साह है। क्योंकि न्याय मतमें जिसका समवाय सम्बन्ध है वेदान्त मतमें तिसका तादात्म्य सम्बन्ध है । गुणकी जातीके प्रत्यक्षमें न्याय रीतिसे संयुक्त-समवेत-समवाय सम्बन्ध है और वेदान्तमें संयुक्त-तादात्म्यवत्तादात्म्य सम्बध हैं, इसीको संयुक्ताभिन्न-तादात्म्य भी कहा है। इन्दियसे संयुक्त जो घटादिक तिसमें तादात्म्यवत् कहिये तादात्म्य
सम्बधवाले रूपादिक हैं, तिसमें तादात्म्य सम्बंध रूपत्वादिक जाति ... का है। जैसे घटादिकमें रूपादिक तादात्म्यवत् है, तैसे ही घटा
दिकसे. अभिन्न भी कहते हैं। अभिन्नका ही तादात्म्य सम्बन्ध हैं। जिस जगह श्रोत्रसे शब्दका साक्षात्कार होता है, तिस जगह न्यायमत • में तो समवाय सम्बंध है, ओर वेदान्तमतमें श्रोत्र इन्द्रिय आकाशका कार्य है, इसलिये जैसे चक्षुरादिकमें क्रिया होवे है तैसे ही श्रोत्रमें क्रिया होकर शब्दवाले व्यसे श्रीत्रकासंयोग होता है, तिस श्रोत्र-संयुक्त द्रव्यमे शब्दका तादात्म्य सम्बन्ध है, क्योंकि वेदान्तमतमें पंचभूतका गुण शब्द होनेसे. भेर्यादिकमें भी शब्द है। इसलिये श्रोत्रके संयुक्त तादार ‘सम्बन्धसे शब्दका प्रत्यक्ष होता है, और जिस जगह शब्दत्वका प्रत्यक्ष
जगह श्रीत्रका संयुक्त-तादात्म्यवत्तादात्म्य सम्बन्ध है । वेदान्तमत में जैसे शब्दत्व जाति है तैसे तारत्व-मंदत्व भी जाति है, न्याय ' माफिक जातिसे भिन्न उपाधी नहीं, इसलिये शब्दत्वजाति श्रोत्रसे सम्बन्ध है। सोही सम्बन्ध तारत्व-मन्दत्वका है, कि सम्बंध नहीं। . . . __ और, अभावका ज्ञान अनुपलब्धिप्रमाणसे होता है, किसा मभावका हान होता नहीं, इस लिये अभायका इन्दियसे सम्ब
हो। यह न्यायमत और वेदान्तमतका प्रत्यक्ष विचारम जिस जगह एक रज्जुसे तीन पुरुषों के दोष-सहित नेत्रका स
होय
जाति है, न्याय मतके व्य शब्दत्वजातिका जो मन्दत्वका है, विशेषणता
होता है, किसो इन्दियसे सन्दयसे सम्बन्ध अपेक्षित
। विचारमें भेद है। हत नेत्रका सम्बन्ध होकर
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