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द्रव्यानुभव-रत्नाकर।]
[ १७१ आदिकको ही मानते हैं, मनको नही और सुखादिकके ज्ञानमें केवल मनको ही प्रमाण मानते हैं अन्यको नहीं। इसलिये एक प्रमाकी दोको प्रमाणता कहना हृष्ट-विरुद्ध है। जिस जगह एक पदार्थमें दो इन्दियोकीयोग्यता होय, जैसे घटमें नेत्र-त्वक्की योग्यता है, तिस जगह भी दो प्रमाणसे एक प्रमा होय नहीं, किन्तु नेत्रप्रमाणसे घटकी चाक्षुष प्रमा होती है और त्वक्प्रमाणसे त्वचाप्रमा होती हैं । दो प्रमाणसे एक प्रमाकी उत्पत्ति देखी नहीं। यहां पर यह शंका भी नहीं बने कि प्रत्यभिज्ञा-प्रत्यक्ष होय तिस जगह पूर्व अनुभव और इन्दिय दो प्रमाणसे एक प्रमा होती है, इसलिये विरोध नहीं है, क्योंकि जिस जगह प्रत्यभिज्ञाति होती है तिस जगह पूर्व अनुभव संस्कारद्वारा हेतु है और संयोग-आदिक-सम्बधद्वारा इन्दिय हेतु है, इसलिये संस्कार रूप व्यापारवाला कारण पूर्वअनुभव है,
और सम्बधरूपव्यापारवाला कारण इन्दिय है, इसलिये प्रमाके कारण होने से दोनो प्रमाण हैं, तैसे ही ब्रह्म-साक्षात्काररूप प्रमाके शब्द और मन दो प्रमाण हैं। यह कहनेमें इष्टविरोध हैं, उल्टा ब्रह्म-साक्षात्कारको मनरूप इन्दिय-जन्य-प्रत्यक्षता निर्विवादसे सिद्ध होती है। और ब्रह्मज्ञानको केवल शब्द-जन्य माने तो विवादसे प्रत्यक्षता सिद्ध करते हैं । और दशम द्दष्टान्त विषय भी इन्दिय-जन्यता और शब्दजन्यताका विवाद है। इन्दिय-जन्य ज्ञानकी प्रत्यक्षतामें विवाद नहीं । जो ऐसे कहें की प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्षमें पूर्व-अनुभव-जन्य सस्कार सहकारी है, केवल इन्दिय प्रमाण हैं तिसका यह समाधान है कि ब्रह्म-साक्षात्कार-प्रमामें भी शब्द सहकारी है, केवल मन प्रमाण है । वेदान्त परिभाषादिक ग्रन्थमें जो इन्दिय-जन्य ज्ञानको प्रत्यक्ष कहने में दोष कहे हैं तिसके सम्यकसमाधानन्यायकौस्तुभ आदिक ग्रंथों में लिखें हैं। जिसको जिज्ञासा होवे सो उनमें देख लें। तथा; जो मनको इन्दिय माननेमें दोष कहा था कि ज्ञानका आश्रय होनेसे अन्त:करण कर्ता है इसलिये ज्ञानका कारण बने नहीं। यह दोष भी नहीं, क्योकि धर्मी अंतःकरण तो ज्ञानका आश्रय होनेसे कर्ता है और अन्तःकरणका परिणामरूप मन ज्ञानका करण है। इसरीतिसे मन भी आमा ज्ञानका करण है, इस लिये प्रमाण है, जहां इन्दियसे व्यका
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