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नव्यानुभव-रत्नाकर।]
[१६६ वेदान्तमतमें विद्यारण्य स्वामीने पांच भूतका गुण कहा है। और वेदातमतमें पाचस्पतिमिश्रने तो मनको इन्द्रिय माना है, और प्रथकारोने मनको इन्द्रिय नहीं माना है। जिनके मतमें मन इन्द्रिय नहीं, जनके मतमें सुख-दुःखका ज्ञान प्रमाण-जन्य नहीं, इसलिये प्रमा नहीं, किन्तु सुख-दुःख साक्षी भासे है। और वाचस्पतिके मतमें सुखादिकका ज्ञान मनरूप प्रमाण जन्य है, इसलिये प्रमा है, और ब्रह्मका अपरोक्ष ज्ञान तो दोनों मतमें प्रमा है; वाचस्पतिके मतमें मनरूप प्रमाण से जन्य है और के मतमें शब्दरूप प्रमाणसे जन्य है। ....
अब इस जगह इन लोगोंमें जो कुछ आपसमें प्रत्यक्ष प्रमाण रूप मनको इन्द्रिय मानने में भेद हैं तिसको भी किंचित् दीखाते हैं कि जिस मतमें मन इन्द्रिय नहीं है, तिस वेदान्तीके मतमें इन्द्रिय-जन्यता प्रत्यक्ष ज्ञानका लक्षण भी नहीं है, किन्तु विषय-चेतनका वृत्तिसे अभेद ही प्रत्यक्ष ज्ञान का लक्षण है। इसलिये वाचस्पतिका मत समीचीन नहीं है, क्योंकि वाचस्पतिके मतमें ऐसा दोष मनको इन्द्रिय नहीं माननेवाले देते हैं कि एक तो मनका असाधारण विषय नहीं है, इसलिये मन इन्द्रिय नहीं, और दूसरा गीताके वचनसे विरोध होता है, क्योंकि गीताके तीसरे अध्यायके चौथे श्लोकमें इन्द्रियसे मन परे हैं ऐसा कहा है, यदि मन भी इन्दिय होता तो इन्दियसे मन परे हैं यह कहना कदापि नहीं बनता। और मानस ज्ञानका विषय ब्रह्म भी नहीं है। यह लेख श्रुति-स्मृतिमें है। और वाचस्पतिने मनको इन्दिय मान करके ब्रह्म-साक्षात्कार भी मनरूप इन्दियसे जन्य है, इसलिये मानस हैं यह कहा है सो भी विरुद्ध है। और अन्तःकरणकी अवस्थाको मन कहते हैं सो अंतःकरण प्रत्यक्ष ज्ञानका आश्रय होनेसे कर्ता है। जो कर्ता होता है सो कारण नहीं होता है इसलिये मन इन्दिय नहीं है। यह दोष मनको इन्दिय मानने में देते है । सो विचार करके देखो तो दोष नहीं है, क्योकि मनका असाधारण
थ सुख, दुःख, इच्छा आदिक है, और अंतःकरण विशिष्ट जीव है। र गीतामें जो इन्दियसे मन परे है ऐसा कहा है सो तिस जगह इन्दिय स बाह्य इन्दियका प्रहण है, इसलिये बाह्य इन्द्रियसे मन परे है।
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