Book Title: Dravyanubhav Ratnakar
Author(s): Chidanand Maharaj
Publisher: Jamnalal Kothari

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Page 199
________________ [द्रन्यानुभव-रत्नाकर। धर्म इदंता भासे हैं, तैसे ही शुक्तिमें शुक्तित्व और नीलपृष्ठता णता भासे नहीं किन्तु सामान्य धर्म इदन्ता भासे है। इसलि द्वारा अन्तःकरण रज को प्राप्त होकर इदमाकार परिणामको प्राप्त है, तिस इदमाकार-वृत्ति-उपहित-चेतननिष्ठ-अविद्या के साकार ही ज्ञानाकार दो परिणाम होते हैं, तैसे ही दण्ड-संस्कार-सहित पर दोषसहित नेत्रकी रजु के सम्बंधसे जहां वृत्ति होवे तहां दण्ड और तिसका ज्ञान अविद्याके परिणाम होते हैं। माला-सस्कार-सहित पुरुषके सदोष नेत्रका रज से सम्बन्ध होकर जिसकी इदमाकार वृत्ति होवे तिसकी वृत्ति-उपहित-चेतनमें स्थित अविद्याका माला और तिसका ज्ञान-परिणाम होता है। जिस जगह एक रजु से तीन पुरुषके सदोष नेत्रका सम्बन्ध होकर सर्प, दण्ड, माला, एक एक का तिनको भ्रम होय, तहां जिसकी तृत्ति उपहितमें जो विषय उत्पन्न हुआ है सो तिसको ही प्रतीत होता है, अन्यको नहीं। .. ... . इस रीतिसे भ्रमशान इन्द्रिय-जन्य नहीं, किन्तु अविद्याकी वृत्तिरूप है, परन्तु जो वृत्ति-उपहित-चेतनमें स्थित अविद्याका परीणाम भ्रम है सो इदमाकार-वृत्ति नेत्रसे रजु आदिक विषयके सम्बन्धसे होती है। इसलिये भ्रमज्ञानमें इन्द्रिय-अन्यता-प्रतीति होती है। अनिर्वचनीयख्यातिका निरूपण और अन्यथाख्याति आदिकका खण्डन गौड ब्रह्मानन्द कृत ख्यातिविचारमें लिखा है सो अति कठिन है, इसलिय लिखा नहीं। ......... ३३ १इस रीतिसे वेदान्त सिद्धान्तमें भ्रमज्ञान होता है, इसलिये अभावक प्रत्यक्षका हेतु विशेषणता सम्बन्धका अंगीकार निष्फल है। आ जाति-व्यक्तिका समवाय सम्बध नहीं, किन्तु तादात्म्य सम्बन्ध ही गुण-गुणीका; क्रिया-क्रियावानका, कार्य-उपादान-कारणका भी त्व सम्बंध है। इसलिये समवायके स्थानमें तादात्म्य कहते है असे त्वक्-आदिक इन्द्रियाँ भूत-जन्य है, तेले ही श्रोत्र इन्द्रिय भी जन्य है आकाश रूप नहीं। और मीमांसामतमें तो शब्द वेदान्त मतमें गुण है, परन्तु म्यायमत में तो शब्द आकाशका हो श्रीत्र इन्द्रिय भी आकाश आकाशका ही गुण है। Scanned by CamScanner

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