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[ द्रव्यानुभव-रनाकर।
रीतिसे प्रत्यक्ष ज्ञानके करण होनेसे इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण है। के सम्बन्धको विषय करने वाला ज्ञान सविकल्प ज्ञान कहा 'घट है' इस ज्ञानसे घटमें घटत्वका समवाय भासे है इसलिये सर कल्प ज्ञानके धर्म, धर्मी, समवाय तीनों ही विषय हैं। इसलिये पर यह विशिष्ट ज्ञान सम्बंध को विषय करनेसे सविकल्प कहलाता है। तिससे भिन्न शान को निर्विकल्प ज्ञान कहते हैं। सविकल्प-निर्विकला ज्ञानके लक्षणका न्याय-शास्त्रमें बहुत विस्तार है, परन्तु अतिक्किए होनेसे विस्तार पूर्वक नहीं लिखा गया।
इसरीतिसे प्रथम विशिष्ट-ज्ञानका जनक विशेषण-ज्ञान निर्विकल्प ज्ञान है और एक दफे 'घट है' ऐसा विशिष्ट ज्ञान हो कर फिर घटका विशिष्ट ज्ञान होय तिस जगह घटसे इन्द्रियका सम्बन्ध है। तैसे ही पूर्वअनुभवकरी घटत्वकी स्मृति होती है तिससे उत्तर क्षणमें 'घट हैं' यह विशिष्ट ज्ञान होता है।
. इस प्रकार द्वितीयादिक विशिष्ट ज्ञानका हेतु विशेषण ज्ञान स्म ति रूप है । और जिस जगह दोष सहित नेत्रका रजुसे अथवा शुक्ति ( सीप ) से सम्बंध होता है तिस जगह दोषके बलसे सर्पत्वको और रजतत्वकी स्मृति होती है रज्जुत्व और शुक्तित्वकी नहीं, क्योंकि विशिष्ट ज्ञानका हेतु विशेषण ज्ञान जो धर्मको विषय करे सो ही धर्म विशिष्ट ज्ञानसे विषयमें भासे है। सर्पत्व और रज्जुत्वको विषय करे है इसलिये सर्प है यह रजु के विशिष्ट ज्ञानसे रज में सपत्व है। और 'रजत (चांदी ) हैं ' यह शुक्तिके विशिष्ट ज्ञानसे शु रजतत्व.भासे हैं । 'सर्प है' इस विशिष्ट भ्रममें विशेष्य रज्जु । सर्पत्व विशेषण हैं, क्योंकि सर्पत्वका समवाय संबंध रजु में तिस समवायका सर्पत्व पतियोगी है और रजु अनुयोग "कपा है" यह भ्रमसे शक्तिमें रजतत्व का समवाय भासे। समवायका प्रतियोगी रजतत्व है इसलिये विशेषण है । अनुयोगी है इसलिये विशेष्य है। . इस रीतिसे सर्व भ्रम ज्ञानसे विशेषणके अभाववाल
रजु . अनुयोगी है, तैसे समवाय भासे है। तिस य विशेषण है और शुक्ति
* अभाववालेमें विशेषण
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