Book Title: Dravyanubhav Ratnakar
Author(s): Chidanand Maharaj
Publisher: Jamnalal Kothari

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Page 206
________________ न्यानुभव-रत्नाकर। पणा दिखाय कर ग्रन्थों जिन ग्रन्थो करना य नहीं मानते हैं, वे लोग भी केवल विवेकशून्य बुद्धि-विचक्षण य कर ग्रन्थों में केवल मन:कल्पित वर्णन करते हैं। और शोका मनके इन्द्रिय न होनेमें प्रमाण देते हैं, वे ग्रन्थ भी नही जैसे पुरुषोंके रचे हुए हैं। इसपर एक मसल याद आई लिखता हूं कि, "अन्धे चूहे थोथे धान, जैसे गुरू तैसे जजमान” । तिसे इन मतावलम्बियोंका प्रत्यक्ष प्रमाण जो है सो उपेक्षा की योग्य है अर्थात् जिज्ञासुके अनुपयोगी है। दूसरा जो ये लोग पमाण और प्रमासे पमेयका ज्ञान होनेको कहते हैं, सो यह पीडनका कहना विवेकशून्य है, क्योंकि जब पमाण और पमेयसे ही जिज्ञासुको यथावत् ज्ञान हो जाय तो फिर पुमाका मानना निष्फल है. क्योंकि जब प्रमाणसे पुमा पैदा होगी तब पमेयका ज्ञान पुमा, करेगी, तब तो प्रमाणका कुछ काम नहीं रहा ; पुमा ही ज्ञान कराने वाली ठहरी, तो फिर पमाणको मानना ही निष्पयोजन हो गया। इस लिये हे भोले भाइयो ! इस पदार्थको ज्ञानमें प्रमाण और पुमा दो मत कहो, किन्तु एक प्रमाण कोई अङ्गीकार करो, और इस अज्ञान को परिहरो, सद्गुरुका लक्षण प्रमाणका हृदय बोच धरो।। ___ अब स्याद्वादसिद्धान्तमें प्रमाणका लक्षण किया है सो दिखाते हैं कि,–“स्वपरव्यवसायि ज्ञान प्रमाणम्” ऐसा श्रीप्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार ग्रन्थमें सूत्र कहा है। इसका स्याद्वादरत्नाकर अथवा स्याद्वादरत्नाकर-अवतारिका आदि ग्रन्थों में विस्तार से वर्णन है। एक तो वे ग्रन्थ मेरे पास नहीं है, और दूसरा, ग्रन्थ बढ़ जानेका भी भव है, तीसरा. इन खण्डन-मण्डनों के विषय बहत सूक्ष्म विचारपूर्ण और क्लिष्ट है. इन कारणों से विस्तार न करके श्रीवीतराग सर्वज्ञ देवने जिस रीति से प्रमाण का वर्णन किया हैं उस राति से किंचित् लिखाता है कि जिन मत में प्रमाण के दो भेद । एक तो प्रत्यक्ष, दूसरा परोक्ष। प्रत्यक्ष नाम स्पष्ट का है अर्थात् अनादिकसे अतिउत्तम निर्मल प्रकाशवाला होय उसका नाम प्रत्यक्ष " है । सो प्रत्यक्षके भी दो भेद हैं, एक तो सांव्यवहारिक, सरादू Scanned by CamScanner

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