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द्रव्यानुभव-रनाकर।]
[१४५ कर्ण-उपहितआकाशमें जो शब्द उत्पन्न होता है, तिसका प्रत्यक्ष शान होता हैऔर का नहीं होता। इस लिये शब्दकी प्रत्यक्ष-प्रमाफल है, श्रोत्र इन्द्रिय करण है । और त्वचा आदिक प्रत्यक्ष शानमें तो सारे विषयका इन्द्रियसे सम्बन्ध ही व्यापार है किन्तु श्रोत्र-प्रमा विषयसे इन्द्रियका सम्बन्ध व्यापार बने नहीं, क्योंकि और स्थानमें विषयका इन्द्रियसे संयोगसम्बन्ध है जब शब्दका श्रोत्रसे समवाय सम्बन्ध है। समवाय सम्बन्ध निस्य है, और संयोग सम्बन्ध जन्य है। त्वक् आदिक इन्द्रियका घटादिकसे संयोग सम्बन्ध त्वक् आदिक इन्द्रियसे उत्पन्न होता है, और प्रमाको उत्पन्न करता है इसलिये व्यापार है। तैसे हो शब्दका श्रोत्रसे समधाय सम्बन्ध श्रोत्र-जन्य नहीं है। इस लिये ब्यापारवाला नहीं, किन्तु श्रोत्र और मनका संयोग व्यापार है। और संयोग दोके आश्रित होता है। जिनके आश्रित संयोग हीय वे दोनों संयोगके उपादान कारण है, इसलिये श्रोत्र-मनका जो संयोग उसका उपादान कारण श्रोत्र और मन दोनों हैं। इसलिये श्रोत्र-मनका संयोग श्रोत्र-जन्य हैं। और श्रोत्र-जन्य ज्ञानका जनक है, इस वास्ते व्यापारवाला है। . .. ... अब इस जगह ऐसी शंका होती है कि श्रोत्र-मनका संयोग श्रोत्रजन्य तो है परन्तु श्रोत्र-जन्य प्रमाका जनक किस रीतिसे बनेगा? ...
इसका समाधान. इस रीतिसे है कि आत्मा और मनका संयोग तो सर्व ज्ञानका साधारण कारण है, इसलिये ज्ञानकी सामान्य सामग्री तो आत्म-मनका संयोग है, और प्रत्यक्ष आदिक ज्ञानकी विशेष सामग्री इन्द्रिय आदिक हैं । इसलिये श्रोत्र-जन्य प्रत्यक्ष ज्ञानके पूर्व भी आत्मामनका संयोग होय हैं। तैसे मनका और श्रोत्रका भी संयोग होय है। मनका और श्रोत्रका संयोग हुए विना श्रोत्र-जन्य ज्ञान होय नहीं, क्योंकि अनेक इन्द्रियोंका अपने२ विषयसे एक कालमें सम्बन्ध होने पर भी एक कालमें उन सर्व विषयोंका इन्द्रियोंसे शान होय नहीं। तिसका कारण यही है कि सर्व इन्द्रियोंके साथ मनका संयोग एक.कालमें होवे नहीं। जब मनके संयोगवाली इन्द्रियका उसके विषयसे सम्बन्ध होय तब ज्ञान होय है। मनसे असंयुक्त ( अलग) इन्द्रियका अपने
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