Book Title: Dravyanubhav Ratnakar
Author(s): Chidanand Maharaj
Publisher: Jamnalal Kothari

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Page 179
________________ [द्रव्यानुभव-रत्नाकर। सवर्ण रूप शब्द होता है। होता है। और, वर्णरूप १४८ और दूसरा कण्ठादिक देशमें वायुके सयोगसे वर्ण रूप शर सोश्रोत्र इन्द्रियसे दोनों प्रकारके शब्दका प्रत्यक्ष होता है। और शब्दमें कवादिक जाति है उसका जैसे समवेत-समवाय स प्रत्यक्ष होता है तैसे ही ध्वनि रूप शब्दमें जो तारत्व-मन्दत्वादिक । उसका भी श्रोत्रसे प्रत्यक्ष होता है। परन्तु कत्वादिक तो वर्णकेपी जातिरूप है, इसलिये कत्वादिकका ककारादिरूप शब्दसे समवाय सम्बन्ध है, और ध्वनि-शब्दके तारत्वादिक जातिरूप नहीं, किन्तु उपाधि रूप है, इसलिये तारत्वादिकका ध्वनि-रूप शब्दमें समवाय सम्बन्ध नहीं, किन्तु स्वरूप सम्बन्ध है, क्योंकि न्याय मतमें जाति रूप धर्मका, गुणका, तथा क्रियाका अपने आश्रयमें समवाय सम्बन्ध है, जाति, गुण और क्रियासे भिन्न धर्मको उपाधि कहते हैं। उपाधिका और अभावका जो अपने आश्रयसे सम्बन्ध, उसको स्वरूप सम्बन्ध कहते है। स्वरूप सम्बन्धको ही विशेषणता कहते हैं। इसलिये जातिसे भिन्न जो तारत्वादिक धर्म, उसका ध्वनि रूप शब्दसे स्वरूप सम्बन्ध है, जिसको विशेषणता कहते हैं। इसलिये श्रोत्रमें समवेत जो ध्वनि, उसमें तारत्व-मन्दत्वका विशेषणता सम्बन्ध होनेसे श्रोत्रका और तारत्व-मन्दत्वका श्रोत्र-समवेत-विशेषणता सम्बन्ध है। इस रीतिसे श्रोत्र इन्द्रियः श्रोत्र-प्रत्यक्ष-प्रमाका करण है, श्रोत्र-मनका संयोग व्यापार है, शब्दादिका प्रत्यक्ष-प्रमा रूप ज्ञान फल है। इस रोतिसे श्रोत्र-इन्द्रिय-जन्य प्रत्यक्ष ज्ञानका वर्णन किया। • अब त्वक् (त्वचा ) इन्द्रियसे स्पर्शका ज्ञान होता है उसका भी वर्णन करते हैं कि-तुक इन्द्रियसे स्पर्शका ज्ञान होता है। तथा स्पशक आश्रयका ज्ञान होता है और स्पर्श आश्रित जो स्पर्शत्व जाति उ और स्पर्श अभावका भी तुक इन्द्रियसे प्रत्यक्ष होता है। जिस इन्द्रियसे जिस पदार्थका ज्ञान होय उस पदार्थक अभाव उस पदार्थकी जातिका उस इन्द्रियसे ज्ञान होता है। सं मल, तेज (अग्नि) इन तीन द्रव्योंका तक इन्द्रियसे प्रत्यक्ष ज्ञान पायुका प्रत्यक्ष ज्ञान होय नहीं, क्योंकि जिस द्रव्यमें प्रत्यक्ष वका और होता है। सो पृथिवी, प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। म प्रत्यक्ष योग्य रूप Scanned by CamScanner

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