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द्रव्यानुभव-रत्नाकर ।]
[१५३ हैं और नहीं हैं । इसलिये पृथ्वी, जल, तेजका ही चाक्षुष प्रत्यक्ष होता है सो इनमें भी जिस जगह उद्भूत रूप होय उसका चाक्षुष प्रत्यक्ष होता
जिसमें अनुभूत रूप होय तिसका चाक्षुष प्रत्यक्ष होय नहीं। जैसे घाण, रसना, नेत्र यह तीनों ही इन्दियां क्रमसे पृथ्वी, जल, तेज रूप हैं। सो इन तीनों में ही रूप है, परन्तु इनका रूप अनुभूत है, उद्भूत नहीं, इसलिये इनका चाक्षुष प्रत्यक्ष होय नहीं। ....... - इस रीतिसे यह बात सिद्ध हुई कि उद्भूत रूपवाले पृथिवी, जल; तेज ही चाक्षुष प्रत्यक्षका विषय हैं । तिसमें भी कोई गुण चाक्षुष प्रत्यक्ष योग्य है और कोई चाक्षष प्रत्यक्ष योग्य नहीं हैं। क्योंकि देखो-जैसे पृथ्वी में रूप १ रस २ गन्ध ३ स्पर्श ४ संख्या ५ परिमाण ६ पृथक्त्व ७ संयोग ८ विभाग ६ परत्व १० अपरत्व ११ गुणत्व १२ व्यत्व १३ संस्कार १४ ये चतुर्दश गुण हैं। इनमें से भी एक. गन्ध को छोड़कर स्नेह को मिलावे तो यही चतुर्दश गुण जलके होते हैं। और इनमेंसे भी रस, गन्ध, गुरुत्व और स्नेहको छोड़कर एकादश तेज (अग्निके) हैं। इनमें भी रूप, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, व्यत्व, इतने गुण चाक्षुष प्रत्यक्ष योग्य हैं, बाकीके नहीं। इसलिये नेत्र-संयुक्त-समवाय रूप सम्बन्ध तो सर्व गुणोंसे है, परन्तु नेतके योग्य सारे नहीं । इसलिये जितने नेत्रके योग्य हैं उतने गुणोंका ही नेत्र-संयुक्तसमवाय सम्बन्धसे प्रत्यक्षहोता है । और स्पर्शमें त्वक् इन्दियकी योग्यता है नेत्र की नही। रूप में नेत्र की योग्यता है, त्वक् की नही। संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, द्रव्यत्व में तो त्वक् और नेत्र दोनोंकी योग्यता हैं। इसलिये त्वक् - संयुक्त-समवाय और नेत्र-संयुक्त-समवाय दोनों सम्बन्ध संख्यादिकके त्वचा प्रत्यक्ष और चाक्षुष प्रत्यक्षके हेतु हैं। रसमें केवल रसनाकी योग्यता है, और इद्रियोंकी नहीं। तैसे ही गन्धमें घाणकी योग्यता हैं और को नही । जिस इन्द्रिगकी योग्यता जिस गुणमें है तिस इन्द्रियसे तिस गुणका प्रत्यक्ष होता है । अन्यके साथ इन्दियके सम्बन्ध होनेसे भी प्रत्यक्ष होय नहीं। तैसे घटादिक में जो सपादिक चाक्षुष मानके
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