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[द्रव्यानुभव-रत्नाकर
वार्थ ज्ञानको घाणज्ञ को मानस-प्रमा कहते हैं। को इन्द्रिय-जन्य है, परन्तु
१४४] ज्ञानको रसना-प्रमा कहते हैं, घ्राण-इन्द्रिय-जन्य यथार्थ ज्ञानको प्रमा कहते हैं और मन-इन्द्रिय-जन्य यथार्थ ज्ञानको मानस-प्रमा
यद्यपि न्याय मतमें शुक्ति-रजतादिक भ्रम भी इन्द्रिय-जन्य केवल इन्द्रिय-जन्य न होकर दोषसहित-इन्द्रिय-जन्य होनेसे वादी है, यथार्थ नहीं, इस लिये शुक्ति (छीप) में रजत (चांदी) का चायूष शान तो है, परन्तु चाक्षुषी प्रमा नही। इस रीतिसर इन्द्रिय से भी जो भ्रम होता है सो प्रमा नही है। . ___ अव जिस रीतिसे इस न्याय मतमें जो सम्बन्धके साथ इन्द्रियसे प्रत्यक्ष ज्ञान होता है उसका किञ्चित् भावार्थ दिखाते हैं-न्याय शास्त्रों में ऐसा लिखा है कि श्रोत्र इन्द्रियसे शब्दका ज्ञान होता है वैसे ही शब्द में जो शब्दत्व जाति है उसका भी ज्ञान होता है, शब्दके व्याप्य कत्वादिकका और तारत्वादिक का भीज्ञान होता है, तथा शब्दके अभाव और शब्दमें तारत्वादिकके अभावका ज्ञान भी उससे ही होता है । जिसकाश्रोत्र इन्द्रियसे छान होता है तिस विषय से श्रोत्र इन्द्रिय का सम्बन्ध कहना चाहिये । इस लिये सम्बन्ध कहते हैं-न्याय मतमें चार इन्द्रियांतो वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी से क्रम सहित ऊपजे हैं और श्रोत्र तथा मन नित्य है। कर्ण-गोलक में स्थित आकाश को श्रोत्र कहते हैं । जैसे वायु आदिकसे त्वक् आदिक इन्द्रियां उत्पन्न होती हैं, वैसे ही आकाशसे श्रोत्र उत्पन्न होता है, यह श्रोत्र को उत्पत्ति नैयायिक मतमें नही मानते हैं।
किन्तु कर्णमें जो आकाश तिसको ही श्रोत्र कहते हैं, क्योंकि गुणका गुणीसे समवाय सम्बन्ध है, और शब्द आकाशका गुण हैं। इसलिये आकाश रूप श्रोत्रसे शब्दका समवाय सम्बन्ध है । यद्यपि भेरी-आदिक देशमें जा आकाश है उसमें शब्द उत्पन्न होता है,और कर्ण-उपहित आकाशको श्रात्र कहते हैं, इस लिये भेरी-आदिक-उपहित आकाशमें शब्द-सम्बन्ध है) कर्ण-उपहित आकाशमें नहीं, तौभी भेरी-डंडके संयोगसे भेरी-उपहित आकाशमें शब्द उत्पन्न होता है, तिसका कर्ण-उपहित आकाशसे सम्बन्ध नहीं, इसलिये प्रत्यक्ष होय नहीं। परन्तु तिस शब्दसे और शब्द दस-द उपहित आकारतमें उत्पन्न होते हैं, तिससे और उत्पन्न होते हैं। इस मा
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