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[ द्रव्यानुभव-रत्नाकर।
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1. विस्तार रूप दिखाते हैं, और प्रमाणको बतलाते हैं, पीछेसे सप्त• भङ्गीका स्वरूप लाते हैं, इन बातोंको कहकर द्रव्यका लक्षण पूरा
कराते हैं ।
प्रमाण ।
अब प्रमाणका स्वरूप कहते हैं कि प्रमाण क्या चीज है और प्रमाण - कितने हैं और सांख्य, वैशेषिक, वेदान्त, मीमांसा आदि कौन २ कितने २ प्रमाण मानता है उसीका किञ्चित् वर्णन करते हैं। प्रमाणके छः भेद हैं- एक प्रत्यक्ष, दूसरा अनुमान, तीसरा शाब्द, चौथा उपमान, पांचवा अर्थापत्ति, छठा अनुपलब्धि । अब इसको इस तरहसे अन्य मतवाले कहते हैं कि प्रत्यक्ष-प्रमा का जो करण सो प्रत्यक्ष प्रमाण है। अनुमिति -प्रमाका जो करण सो अनुमान प्रमाण है । शाब्दी प्रमाका जो करण सो शब्द प्रमाण है । उपमिति प्रमाका जो करण सो उपमान - प्रमाण है । अर्थापत्ति प्रमाका जो करण सो अर्थापत्ति प्रमाण है। अभाव-प्रमाके करणको अनुपलब्धि प्रमाण कहते हैं प्रत्यक्ष और अर्था
।
पत्ति प्रमाणके प्रमाको एक ही नामसे कहते हैं । सो यह षट् प्रमाण - भट्टके मतमें हैं । अद्वैतवादी अर्थात् वेदान्ती भी ये ही छः प्रमाण मानते हैं। न्याय मतमें चार ही प्रमाण माने हैं। अर्थापत्ति और अनुपलब्धि को नही माने हैं। इन दोनोंको चार ही प्रमाणके अन्तर्गत करे हैं। सांख्य मतवाला तीन ही प्रमाण मानता है। उपमान प्रमाणको इन तीनों प्रमाणके अन्तर्गत करता है। बौद्ध मतवाला दो प्रमाण मानता है- एक प्रत्यक्ष, दूसरा अनुमान । जैन शास्त्रोमें भी दो प्रमाण कहे हैं:- एक तो प्रत्यक्ष, दूसरा परोक्ष । इन दोनों ही प्रमाणोंमें सब प्रमाण अन्तर्गत हो जाते है । सो इसका वर्णन, अन्यमतावलम्बियों जिस रीतिले प्रत्यक्ष आदि प्रमाण मानते हैं उनका किञ्चित् वर्णन करके, पीछेसे
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कहेंगे ।
न्याय - शास्त्र की रोतिसे प्रत्यक्ष प्रमाणका वण्न फिरते हैं कि नेयाकि किस रीतिसे प्रत्यक्ष प्रमाणको मानता है सो ही दिखाते हैं कि जी
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