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[ द्रव्यानुभव-रत्नाकर।
१४०] है सो हो धर्म हैं। इस नयवालेने अनाचार छोड़ा, परन्तु कुल आचारसी अंगीकार किया। तब व्यबहारनयवाला कहने लगा कि जो सब कारण सो धर्म है । इस नयवालेने पुण्य करनीमें धर्म कहा । तव और सूत्रनयवाला बोला कि उपयोग सहित वैराग्यरूप परिणाम सो धर्म है। इस नयवालेने यथाप्रवृत्ति-करणका परिणाम सर्व धर्ममें लिया, सो ऐसा वैराग्य रूप परिणाम तो मित्थात्वीका भी होता है। तब शब्द नयवाला बोला कि जिसको सम्यक्त्वकी प्राप्ति है सो धर्म है, क्योंकि धर्मका मूल सम्यक्त्व है। तब समभिरूढनयवाला कहने लगा कि जीव अजीव और नव तत्व अथवा छः (६) द्रव्यको जानकर अजीवका त्याग करे, एक जीव सत्ताको ग्रहण करे, ऐसा जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र सहित परिणाम वह धर्म है। इस नयवालेने साधक और सिद्ध परिणाम धर्ममें लिया। तब एवंभूतनयवाला कहने लगा कि जो शुक्ल ध्यान और रूपातीत परिणाम, क्षपकणी , कर्म क्षय करनेका कारण ( हेतु ) है, सो धर्म, क्योंकि जो जीवका मूल स्वभाव हैं सो धर्म है, उस धर्मसे ही मोक्ष रूपी कार्यकी सिद्धि होती है, इसलिये जीवका जो स्वभाव सो धर्म है। इसरीतिसे जीवमें (७) नय कहे। ___ अब सिद्ध में ७ नय कहते हैं-नैगमनयवालो सर्व जीवको सिद्ध कहता है, क्योंकि सर्व जीबके ८ रुचकप्रदेश, सिद्धके समान है, उन आठ रुचकप्रदेशों को कदापि कर्म नही लगता, इसलिये सर्व जीव सिद्ध हैं। तब संग्रहनयवाला कहने लगा सर्व जीब की सत्ता सिद्धके समान हैं, इस नय वालेने पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा तो छोड़ दी और द्रन्यार्थिकनयकी अपेक्षा अंगीकार करो। तब ब्यवहारनयवाला कहन लगा कि बिद्या, लब्धि, चेटक, चमत्कार आदि सिद्धि जिसमें होय सा सिद्ध है, क्योंकि यह ब्यवहारनय वाला देखी हुई वस्तुको मानता है। इसलिये जो बाह्य तप प्रमुख अनेक तरह की सिद्धि बालजावा दिखानेवाले हैं उनको सिद्ध मानता है। इसलिये इस नयबालेन । सिद्धि अङ्गीकार करी। तव ऋजसूत्रनयवाला वोला कि सिद्धकी सत्ता और अपनी आत्मा की सत्ता औलखी अथोत् ॥
लेने धाव
नयवाला वोला कि जिसने
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